________________
तत्त्वानुशासन
जब 'आ' और 'जु' सज्ञक प्रतियाँ मुझे मिल गई और उनसे यह स्पष्ट जान पडा कि प्रथकारका नाम 'रामसेन' है-'नागसेन' नही। साथ ही प० आशाधरजीके एक नाम-पूर्वक उद्धरणसे उसकी पुष्टि भी हो गई, तब मैंने सन् १९२० मे 'तत्त्वानुशासनके कर्ता' नामसे एक लेख लिखा, जो जनहितैषी भाग १२ के सयुक्ताङ्क १०-११ मे पृ० ३१३ पर प्रकाशित हुआ है । इस लेखमे दोनो प्रतियोके पाठको स्पष्ट करते हुए लिखा था
"इस पाठके अनुसार दोनों (प्रशस्ति) पद्योका अर्थ यह होता है कि-श्रीवीरचन्द्र, शुभदेव, महेन्द्रदेव और विजयदेव ये चारो जिसके शास्त्रगुरु अर्थान् विद्यागुरु थे और फिर पुण्यमूर्ति तथा उद्घचरित्रकीर्ति ऐमे श्रीनागसेनमुनि जिसके दीक्षागुरु हुए उस प्रवुद्धबुद्धि श्रीरामसेन नामके विद्वान्ने, गुरूपदेशको पाकर, यह सिद्धि-सुख-सपदाका उपायभूत और स्फुट अर्थको लिये हुए 'तत्त्वानुशासन' नामका ग्रथ जगतके हितके लिये रचा है।' जहाँ तक हम समझते हैं यह अर्थ दोनो पद्योकी शब्द-रचना-परसे बहुत कुछ सीधा, सुसंगत और प्राकृतिक मालूम होता है । विपरीत इसके, छपे हुए पाठको ज्यो-का-त्यो रखनेकी हालतमे, 'नागसेन' की पुनरावृत्ति बहुत खटकती है। 'स' आदि शब्दोको ऊपरसे लगाकर पहले पद्य (२५६) का अर्थ करना होता है और विजयदेवको खीच-खाँचकर नागसेन-मुनिका दीक्षागुरु बनाना पडता है। इसलिये हमारी रायमे जयपुरादि प्रतियोका उपर्युक्त पाठ बहुत कुछ ठीक मालूम होता है और उसके अनुसार यह ग्रन्थ श्रीनागसेनमुनिका बनाया हुआ न होकर उनके दीक्षित-शिष्य श्रीरामसेन विद्वानका बनाया हुमा जान पडता है। प० आशाघरजी भी अपने अनगारधर्मामृतके 8वें अध्याय मे, इस ग्रथका एक पद्य 'रामसेन' के नामसे उद्धृत करते हैं । वह उद्धरण इस प्रकार है -
'तथा श्रीमद्रामसेनपूज्यरप्यवाचिस्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्ता ध्यानात्स्वाध्यायमामनेत् । ध्यान-स्वाध्याय-सपत्या परमात्मा प्रकाशते ।।" (८१)