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तत्त्वानुशासन 'सब जीवोंका स्वरूप स्वका और परका प्रकाशन है । सूर्यमण्डलको तरह परसे उनका प्रकाशन नहीं होता।' ' व्याख्या-पिछले पद्यमे मुक्तात्माके स्वरूपमे अवस्थितिको जो बात कही गई है वह स्वरूप क्या है उसीका इस पद्यमे निर्देश किया गया है। वह स्वरूप सूर्य-मण्डलकी भाति स्व-पर-प्रकाशन है और वह किसी एकका नही, सकल जीवोका है । सूर्य-मण्डलका प्रकाशन जिस प्रकार किसी दूसरे द्रव्यके द्वारा नही होता उसी तरह आत्म-स्वरूपका प्रकाशन भी किसी दूसरे द्रव्यके द्वारा नही होता। इसी लिए उसे स्वसवेद्य कहा गया है।
स्वरूपस्थितिकी दृष्टान्त-द्वारा स्पष्टता . तिष्ठत्येव स्वरूपेण क्षीरणे कर्मणि पूरुषः । यथा मणिः स्वहेतुभ्यःक्षीणे सांसगिके मले ॥२३६।।
'जिस प्रकार मणि-रत्न ससर्गको प्राप्त हुए मलके स्वकारणोंसे क्षयको प्राप्त हो जाने पर स्वरूपमें स्थित होता है उसो प्रकार जीवात्मा कर्ममलके स्वकारणोसे क्षीण हो जाने पर स्वरूपमे स्थित होता है।' ___ व्याख्या-यहाँ सांगिक मलसे रहित मणिको स्वरूपावस्थितिके दृष्टान्त-द्वारा कर्ममलसे रहित हुए आत्माकी स्वरूपावस्थितिको स्पष्ट किया गया है। जिस प्रकार सासर्गिक मलके दूर हो जाने पर मणि-रत्नका अभाव नही होता, वह कान्तिरहित नही होता और न उसकी कान्ति निरर्थक ही होती है, उसी प्रकार सासर्गिक कर्ममलसे रहित हुआ जीवात्मा अभावको प्राप्त नही होता, न अपने स्वाभाविक चैतन्यगुणसे रहित होता है और न उसका चैतन्यगुण निरर्थक हो होता है।
१. मु पौरुष । २. मे ज ससर्गिके ।