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ध्यान-शास्त्र द्वारा पाषाण-भावके विनष्ट होने पर हेम-भावकी उपलब्धि होती है।
इस सिद्धिका नाम ही मुक्ति है, जिसे बौद्ध प्रदीप-निर्वाणके समान अभावरूप, वैशेषिक बुद्धयादि वैशेषिक-गुणोके उच्छेदमय अचैतन्यरूप और साख्य ज्ञेयके ज्ञानसे रहित अनर्थक चैतन्यरूप मानते हैं। इन तोनोको मान्यताओको लक्ष्यमे लेकर यहाँ पद्यके उत्तरार्धमे तीन वाक्योकी सृष्टि की गई है और उनके द्वारा क्रमशः यह सूचित किया गया है कि उक्त स्वरूपावस्थिति-सिद्धि अथवा मुक्ति-अभावरूप नही है, अचैतन्यरूप भी नहीं है और न अनर्थक-चैतन्यरूप ही है, किन्तु सत्रूप है-सत्स्वरूप आत्माका कभी विनाश नही होता है, आत्मा चैतन्यगुण-विशिष्ट है---उसके सदा सहभावी चेतनागुणका कभी अभाव नहीं होता और चेतना ज्ञानरूपा है, इसलिये वह कभी अनर्थक नही होती आत्माका ज्ञान-दर्शन लक्षण होनेसे सदा सार्थक बनी रहती है।
आगे चार पद्योमे उस स्वरूप और स्वरूपावस्थितिको और स्पष्ट किया गया है:
सब जीवोका स्वरूप स्वरूपं सर्वजीवानां स्व-परस्य प्रकाशनम् । भानु-मण्डलवत्तेषां परस्मादप्रकाशनम् ॥२३॥ १- सिद्धि स्वात्मोपलब्धि प्रगुण-गुण गणोच्छादि-दोषापहारात् ।
योग्योपादानयुक्तया दृषद इह यथा हेमभावोपलब्धि ॥(सि० भ०) २. चेतना ज्ञानरूपेय स्वय दृश्यत एव हि । (तत्त्वानु० १६८) ३ अप्पु पयासइ अप्पु परु जिम अवरि रवि-राउ । जोइय एत्युमभति करि एहउ वत्यु-सहाउ ॥
-परमात्मप्र० १०१