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________________ १६६ तत्त्वानुशासन ___ यहाँ 'स्वगुणात्मकः' विशेषण अपना खास महत्व रखता है और इस बातको सूचित करता है कि मुक्त होने पर गुणोका नाश अथवा उनमे किसी प्रकारकी हानि नही होती-वे सब गुण सदा सहभावी होनेसे उस आकारप्रमाण ही रहते हैं। प्रक्षीणकर्माकी स्वरूपमे अवस्थिति और उसका स्पष्टीकरण 'स्वरूपाऽवस्थितिः पुसस्तदा प्रक्षीणकर्मणः । नाऽभावो नाऽप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्थकम् ।।२३४।। 'तब-सम्पूर्ण कर्म-बन्धनोसे छूट जाने पर उस प्रक्षीणकर्मा पुरुषको स्वरूपमे अवस्थिति होती है, जो कि न प्रभावरूप है, न अचैतन्यरूप है और न अनर्थक चैतन्यरूप है।' व्याख्या-प्रकर्षध्यानके बलसे जिस आत्माके समस्त कर्मबन्धन अत्यन्त क्षयको प्राप्त हो जाते है-द्रव्यकर्म, भावकर्म तथा नोकर्मके रूपमे किसी भी प्रकारके कर्मका कोई सम्बन्ध आत्माके साथ अवशिष्ट नही रहता-और इसलिये वह ऊर्ध्वगमन-स्वभावसे क्षणभरमे लोक-शिखरके अग्रभाग पर पहुँच जाता है; तब उसकी जो स्थिति होती है उसे यहाँ 'स्वरूपावस्थिति' बतलाया है, जो कि देहादिकसे भिन्न और वैभाविक परिणतिसे रहित स्वगुणोमे शाश्वत स्थितिके रूपमे हैं। श्रीपूज्यपादाचार्यने सिद्धभक्तिमे इसे 'स्वात्मोपलब्धि' के रूपमे उल्लेखित किया है, जो कि उस सिद्धिका लक्षण है, जिसकी प्राप्ति उन द्रव्यकर्म-भावकर्मादि-रूप दोषोके अभावसे होती है जो अनन्तज्ञानादि प्रवरगुण-गणोके विकासको रोके हुए है, और वह उसी प्रकार होती है जिस प्रकार कि सुवर्ण-पाषाणसे अग्नि आदिके योग्य प्रयोग. १. मात्मलाम विदुर्मोक्ष जीवस्याऽन्तर्मलक्षयात् । नाऽभावो नाप्यचैतन्य न चैतन्यमनर्थकम् ।। -यशस्तिलक मा० ६, पृ० २८०
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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