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ध्यान-शास्त्र
१६५ जिसे त्याग कर वह मुक्त हुआ है और वह उस देहके प्रतिबिम्बरूप रुचिराकार ही होता है।
यहाँ प्रयुक्त हुया 'किचित् ऊन' विशेषण आत्म-प्रदेशोके आकारमें हानि अथवा सुकडनरूप सकोचका वाचक नही है, बल्कि उस त्यक्त शरीरके नख-केश-त्वचादि-रूप जितने अशोमे मात्म-प्रदेश नही थे उनकी दृष्टिसे आकारमें कुछ कमोका वाचक है। इसके अतिरिक्त शरोरके मुख, कान, नाक तथा पेट जैसे अगोमें कुछ पोल भी होतो है जिसमें आत्म-प्रदेश नहीं होते। मुक्तात्माओके आकारम वह पोल नहीं रहती, उनके आत्मप्रदेश धन-विवरता अथवा निश्छिद्रावस्थाके रूपमे उसो प्रकार स्थित होते हैं जिस प्रकार मोमका पुतला अग्निसे पिघल कर निकल जाने पर साचा (मूपा)के भीतर निरुद्ध आकाश स्थित होता है। १ अन्याकाराप्तिहेतुर्न च भवति परो येन तेनाऽल्पहीन । प्रागात्मोपात्तदेहप्रतिकृतिरुचिराकार एव ह्यमूर्त ।
(सि० भ० पूज्यपाद.) "किंचिन्यूनान्त्यदेहानुकारी जीवघनाकृति ॥"(आर्प २१-११५) २ "अमूर्तोऽप्ययमन्त्याङ्गसमाकारोफ्लक्षणात् ।
"मूपागर्भनिरुद्धस्य स्थिति व्योम्नः परामृशन् ॥"(आर्ष२१-२०३) "घन विवरतया किंचिदूनाकृति ।" (अध्यात्मतर०, सोमदेव) "घनविवरतया घना निविडा विवराश्छिद्रास्तेषा भावस्नत्ता तया मदनहीन-मूपागर्भवदतीतानन्तर-तन्वाकार-जीवधनकरूपत्वानिखिल-सुपिर-प्रदेशानामित्यर्थ ।"(अध्यात्मतर०टी ,गणधरकीर्ति) "किंचिदूनाः निविडरूपतया तदात्मप्रदेशानामवस्थानात् नखत्वगादिशरीरपरिमाणहीनत्वाच्च । ... . गतसिक्थमूषागर्भ यादृशाकारस्तादृशाकारा सिद्धाः भवन्ति ।"
-प्राकृत सिद्धभ० टीकाया, प्रभाचन्द्र.