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________________ ध्यान-शास्त्र १६६ स्वात्मस्थितिके स्वरूपका स्पष्टीकरण न मुह्यति न संशेते न स्वार्थानाध्यवस्यति' । न रज्यति न च द्वेष्टि किन्तु स्वस्थः प्रतिक्षणम् ॥२३७ त्रिकाल-विषय ज्ञेयमात्मानं च यथास्थितम् । जानन्पश्यंश्च निःशेषमुदास्ते स तदा प्रभुः ॥२३८॥ अनन्त-ज्ञान-दृग्वीर्य-वैतृष्ण्य-मयमव्ययम् । सुख चाऽनुभवत्येष तत्राऽतोन्द्रियमच्युतः ॥२३॥ _ 'मुक्तिको प्राप्त हुआ जीवात्मा न तो मोह करता है, न संशय करता है, न स्व तथा पर-पदार्थो के प्रति अनध्यवसायरूप प्रवृत्त होता है-स्व-पर पदार्थोसे अनभिज्ञ रहता है और न द्वेष करता है, किन्तु प्रतिक्षण स्वमें स्थित रहता है। उस समय वह सिद्धप्रभु त्रिकाल-विषयक ज्ञेयको और आत्माको यथावस्थित-रूपमें जानता-देखता हुआ उदासीनता - उपेक्षाको धारण करता है और मुक्तिमें यह अच्युत सिद्ध उस अतीन्द्रिय अविनाशी सुखका अनुभव करता है जो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तवैतृष्ण्यरूप होता है।' व्याख्या-यहाँ मुक्तिको प्राप्त शुद्धात्माके स्वात्मस्थितस्वरूपका स्पष्टीकरण कुछ विशेषताके साथ किया गया है और अन्तमे उसके उस अतीन्द्रिय अविनाशो सुखका उल्लेख किया है जिसे वह अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और तृष्णाके अनन्तअभाव अथवा समताके अनन्तसद्भावरूपमे अनुभवकरता है। इस पद्य परसे २३४वे पद्यका विषय और स्पष्ट होजाता है १ मुज स्वार्थान (ना) ध्यवस्यति । २. मु रज्यते ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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