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ध्यान-शास्त्र वजकाय-योगी चार प्रकारके शुक्लध्यानको ध्याकर और पाठो कर्मों का नाश करके अक्षय-मोक्षपदको प्राप्त करता है।'
व्याख्या-यहां, उस उत्कृष्ट ध्यानाभ्यासी अचरमशरीरी योगीको स्वर्गमे महद्धिक देव होने पर चिरकाल तक जिस सुखकी प्राप्ति होती है उसकी अतिसक्षेपमे सूचना करनेके बाद, यह बतलाया गया है कि वह योगी स्वर्गसे मर्त्यलोकमे अवतार लेकर बज्रशरीरका धारक हुमा चक्रवर्ती आदि किसी महान राजपुरुषके पदसे विभूषित होता है, चिरकाल तक उस पदकी सपदाको भोगता है, फिर उससे विरक्त होकर दैगम्बरी जिनदीक्षा धारण करता है और चारो प्रकारके शुक्लध्यानो-द्वारा आठो कर्मोंका नाश करके अक्षय-मोक्षपदको प्राप्त करता है, यहो उसके पूर्वभव-सम्बन्धो ध्यानपर्यायमे अशरीरी होनेके कारण मोक्ष-प्राप्तिका प्रायः क्रम है।
स्वर्गके जिस सुखको सूचना प्रथम पद्य (२२७)मे की गई है उसमे इन्द्रियो तथा मनको अतीव प्रसन्न करनेवाले उस सारे ही सुखामृतका समावेश हो जाता है जिसकी उपमा मर्त्यलोकके किसी भी सासारिक सुखको नहो दो जा सकती। इसीसे श्रीपूज्यपादाचार्यने 'इष्टोपदेश मे 'नाके नाकोकसां सोख्यं नाके नाकोकसामिव' इस वाक्यके द्वारा यह प्रतिपादन किया है कि स्वर्गका वह सुख अपनी उपमा आप ही है।
मोक्षका स्वरूप और उसका फल आत्यन्तिक-स्वहेतोर्यो विश्लेषो जीव-कर्मणोः । स मोक्षः फलमेतस्य ज्ञानाद्याः क्षायिका गुणाः ॥२३०॥
'जीव और कर्मके प्रदेशोका स्वहेतुसे-बन्ध-हेतुओके अभाव तथा निर्जरारूप निजी कारणसे-जो प्रात्यन्तिक विश्लेष है