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तत्त्वानुशासन 'तथा ध्यानका अभ्यास करनेवाले अचरमाङ्ग योगीके सदा अशुभकर्मो की निर्जरा होती है और (अशुभकर्मास्त्रवके निरोध स्वरूप) सवर होता है। साथ ही उसके प्रतिक्षण पुण्यकर्म प्रचुर मात्रामे प्रास्रवको प्राप्त होते है, जिनसे यह योगी कल्पवासी देवोसे महाऋद्धिधारक देव होता है।'
व्याख्या-यहाँ उस योगीके जो चरमशरीरी नही-भवधारणरूप ससार-पर्यायका जिसके अभी अन्त नही आया- उत्कृष्ट ध्यानके फलका निरूपण करते हुए यह बतलाया है कि उसके सम्पूर्ण अशुभकर्मों की निर्जरा होजाती है और किसी भी अशुभकर्मका आस्रव नहीं होता, प्रत्युत इसके क्षण-क्षणमे बहुत अधिक पुण्यकर्मोंका आस्रव होता है जिन सबके फलस्वरूप वह कल्पवासी देवोमे किसी देवपर्यायको पाकर महाऋद्धिका धारक देव होता है। तत्र सर्वेन्द्रियाल्हादि मनसः प्रीणन परम् । सुखाऽमृत पिबन्नास्ते सुचिर सुर-सेवितम् ॥२२७।। ततोऽवतीर्य मयेऽपि चक्रवादिसम्पदः । चिरं भुक्त्वा स्वयं मुक्त्वा दोक्षां दैगम्बरी 'श्रितः॥२२८ वज्रकायः स हि ध्यात्वा शुक्लध्यान चतुर्विधम् । विधूयाऽष्टाऽपि कर्माणि श्रयते मोक्षमक्षयम् ॥२२६॥
'वहाँ-उस देवपर्यायमे वह सर्व इन्द्रियोंको आल्हादित और मनको परम तृप्त करनेवाले सुखरूपी प्रमृतको पीता हुआ चिरकाल तक सुरोसे सेवित रहता है। वहाँसे मर्त्यलोकमे अवतार लेकर, चक्रवर्ती प्रादिकी सम्पदासोको चिरकाल तक भोगकर, फिर उन्हे स्वयं छोडकर, दैगम्बरी दीक्षाको आश्रय किये हुए वह १. मू मे मोदि । २ ज दिगवरी ।