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तत्त्वानुशासन
एक दूसरे से सदा के लिये अतीव पृथक्त्व है - वह मोक्ष अथवा मुक्ति है जिसके फल हैं ज्ञानादिक क्षायिकगुण -- ज्ञानावरणादि कर्म प्रकृतियो के क्षयसे प्रादुर्भूत होनेवाले आत्मा के अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सुख ( सम्यक्त्व), अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहना, अगुरुलघुत्व और अव्याबाघ नामके स्वाभाविक मूल गुण ।
व्याख्या -- जिस मोक्षकी प्राप्तिके लिये ध्यानकी प्रेरणा की गई है और जिसके लिये मुमुक्षुओका सारा प्रयत्न है उसका क्या स्वरूप है और क्या फल है, उसीको यहां अत्यन्त सक्षिप्तरूपसे बतलाया है । मोक्षका स्वरूप है बन्धावस्थाको प्राप्त जीव और कर्मोके प्रदेशोका आत्यन्तिक विश्लेषण - सदाके लिये एक दूसरे से पृथक् हो जाना अथवा किसी भी कर्मका किसी भी प्रकारका सम्बन्ध आत्माके साथ न रहना । यह विश्लेषण जिन कारणोंसे होता है वे हैं -- बन्ध-हेतुओका अभाव ( संवर) और निर्जरा । एकसे आत्मामे नये कर्मों का प्रवेश सर्वथा रुक जाता है और दूसरेसे सचित कर्मोंका पूर्णत निकास अथवा बहिष्कार हो जाता है । इसीसे 'तत्त्वार्थ सूत्र' मे 'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः' यह मोक्षका स्वरूप निर्दिष्ट किया है । इस मोक्षका फल ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय नामक चार घातियाकर्मों के क्षयसे प्रादुर्भूत होनेवाले आत्मा के अनन्तबोधस्वरूप केवलज्ञान, अनन्तदर्शन रूप केवलदर्शन, स्वाभाविक स्वात्मोत्य सुख और अप्रतिहतअनन्तवीर्यरूप गुणोका पूर्णत विकास है ।
मुक्तात्माका क्षणभरमे लोकान-गमन
कर्म - बन्धन विध्वंसादूर्ध्वव्रज्या - ' स्वभावतः । क्षणेनैकेन मुक्तात्मा जगच्चूडाग्रमृच्छति ॥२३१॥
१. सि जु दृष्वं