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________________ ध्यान-शास्त्र १८७ प्रभावनाके लिये ऐसे कार्य करते हुए देखे-सुने जाते हैं जो लौकिक विषयोंसे सम्बन्ध रखते हैं। आर्तध्यानके भी व्यवहार-दृष्टिसे शुभ और अशुभ ऐसे दो भेद बनते हैं। वह तत्त्वज्ञान जो शुक्ल ध्यानरूप है तत्त्वज्ञानमुदासीनमपूर्वकरणादिषु । शुभाऽशुभ-मलाऽपायाद्विशुद्ध शुक्लमभ्यधुः ॥२२१॥ 'अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोमे जो उदासीन-अनासक्तिमय -तत्त्वज्ञान होता है वह शुभ और अशुभ दोनो प्रकारके मलके नाश होनेके कारण विशुद्ध शुक्लध्यान कहा गया है।' व्याख्या-यहाँ अपूर्वकरण आदि (हवें से १२वे) गुणस्थानोमे होनेवाले उस तत्त्वज्ञानको निर्मल-शुक्लध्यान बतलाया है जो ज्ञेयोके प्रति कोई आसक्ति न रखता हुआ उदासीन अथवा उपेक्षाभावको प्राप्त होता है, और इसका कारण यह निर्दिष्ट किया है कि वहाँ वह ज्ञान शुभ और अशुभ दोनो प्रकारके भावमलोसे रहित होता है। शुक्लध्यानका स्वरूप 'शुचिगुण-योगाच्छुक्ल' कषाय-रजसः क्षयादुपशमाद्वा। माणिक्य-शिखा-वदिद सुनिर्मलं निष्प्रकम्पं च ॥२२२॥ 'कषाय-रजके क्षय होने अथवा उपशम होनेसे और शुचिपवित्र गुणोके योगसे शुक्लध्यान होता है और यह ध्यान माणिक्य१. यह पद्य मुद्रित 'ज्ञानार्णव' के ४२ वें प्रकरणमे ५ वें पद्यके अनन्तर उद्धृत है। २. सर्वा० सि० तथा तत्त्वा० वा० ६-२८ । ३ कपाय-मल-विश्लेपात् शुक्लशब्दाभिधेयताम् उपेयिवदिद ध्यान• • (आर्ष २१-१६६)
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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