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________________ १५८ तत्त्वानुशासन शिखाकी तरह सुनिर्मल तथा निष्कम्प रहता है।' व्याख्या-यहाँ, शुक्लध्यानका स्वरूप उसकी निरुक्ति-द्वारा प्रतिपादन करते हुए, बतलाया है कि यह ध्यान शुचि-गुणोके सयोगसे शुक्लसज्ञाको प्राप्त है। शुचि शब्द यहाँ श्वेत, शुद्ध, पवित्र तथा निर्मल अर्थोका वाचक है । वस्त्र जिस प्रकार मैलके दूर हो जाने पर शुचिगुणके योगसे शुक्ल कहलाता है उसी प्रकार कषायमलसे रहित होने पर आत्माका जो अपने शुद्धस्वभावमे परिणमन है वह भी शुक्ल कहा जाता है। मिट्टी-रेतादिसे मिला मलिन जल जिस प्रकार उस मल-द्रव्यके पूर्णतः विश्लेपणरूप क्षयको अथवा उदयाभावरूप उपशमको प्राप्त होता है तो वह निर्मल कहा जाता है उसी प्रकार कपायमलसे मलिन आत्मा भी जब उस मलके क्षयभाव अथवा उपशमभावको प्राप्त होता है तब वह सुनिर्मल कहा जाता है। शुक्ल भी उसीका नामान्तर है । इस ध्यानमे चूकि शुचिगुणविशिष्ट परम-शुद्धात्माका ध्यान होता है इसलिये इसे शुक्लध्यान नाम दिया गया है। यह ध्यान माणिक्य (रत्न) की ज्योतिके समान कम्पविहीन होता है-- डोलता नही। ___ मुमुक्ष को नित्य ध्यानाभ्यासकी प्रेरणा 'रत्नत्रयमुपादाय त्यक्त्वा बन्ध-निबन्धनम् । ध्यानमभ्यस्थतां नित्यं यदि योगिन् ! सुमुक्षसे ।।२२३॥ 'हे योगिन् ! यदि तू मोक्ष चाहता है तो सम्यग्दर्शन-सम्यन ग्ज्ञान सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयको ग्रहण करके बन्धके कारणरूप मिथ्यादर्शनादिकके त्यागपूर्वक निरन्तर सद्ध्यानका अभ्यास कर।' १. सि जु रत्नत्रयमयो भूत्वा ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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