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तत्त्वानुगासन व्याख्या-पिछले पद्योमे समरसीभावरूप ध्यानका कुछ उदाहरणो-द्वारा जो फल निर्दिष्ट किया गया है उस परसे किसीको यह भ्रान्ति (गलतफहमी) न होनी चाहिये कि ध्यानका फल लौकिक ही होता है। लौकिक जन लौकिक फलकी अनुभूतिके विना पारमार्थिक फलको ठीक समझ नही पाते। अत जगज्जनोंके हृदयोमे ध्यानके माहात्म्यको ख्यापित करनेके लिये लौकिक फलप्रदर्शनका आश्रय लिया गया है । यही इस पद्यका आशय है।
_ ऐहिक फलाथियोका ध्यान आर्त या रौद्र 'तध्यानं रौद्रमात वा यदैहिक-फलार्थिनाम् । तस्मादेतत्परित्यज्य धयं शक्लमुपास्यताम् ॥२२॥
'ऐहिक (लौकिक) फलके चाहनेवालोके जो ध्यान होता है वह या तो आत ध्यान है या रोद्रध्यान। प्रत इस आर्त तथा रोद्रध्यानका परित्याग कर (मुमुक्षुओंको) धबध्यान तथा शुक्लध्यानको उपासना करनी चाहिये।'
व्याख्या-यहाँ उस ध्यानको (यथास्थिति) आर्तध्यान या रौद्रध्यान बतलाया है जो लौकिक फल चाहनेवालोके द्वारा उस फलकी प्राप्तिके लिए किया जाता है। इसलिये जो एकमात्र मुक्तिके अभिलाषी है उन्हे इन दोनो ध्यानोका त्यागकर धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यानका अवलम्बन लेना चाहिये, ऐसी प्रेरणा की गई है। धर्म्य तथा शुक्लध्यानके द्वारा लौकिक फलोकी स्वत. प्राप्ति होती है, यह बात पहले प्रदर्शित की जा चुकी है । और इसलिए किसीको यहां यह न समझ लेना चाहिये कि आतध्यान या रौद्रध्यानके विना लौकिक फलकी प्राप्ति होती ही नहीं।
आर्तध्यान छठे गुणस्थानवर्ती मुनियो तकके होता है । इसीसे अनेक मुनि अपने लिए, दूसरोंके लिए अथवा धर्म-शासनकी १. मु यद्व्यान ।