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ध्यान-शास्त्र
१८५ वृहद्रव्यसग्रहकी संस्कृत-टोकामे उद्धृत निम्न पद्यमे वैराग्य, तत्त्वविज्ञान, निर्ग्रन्थता (असगता), समचित्तता और परीषह-जय इन पाँचको ध्यानके हेतु बतलाया है, जो सब ठीक हैं -
'वैराग्यं तत्त्वविज्ञान नैर्ग्रन्थ्य समचित्तता।
परीषह-जयश्चेति पंचैते ध्यानहेतवः ॥ पृ० २०१॥ इसी तरह यशस्तिलकके अष्टमाश्वासगत 'ध्यानविधि' नामक ४०वें कल्पमे वैराग्य, ज्ञानसम्पत्ति, असगता, स्थिरचित्तता और मिस्मय-सहनता इन पाँचको योग(ध्यान)के कारण बतलाया है -
वैराग्य ज्ञानसपत्तिरसंग स्थिरचित्तता।
मि-स्मय-सहत्व च पच योगस्य हेतवः।। 'मि' शब्द यहाँ भूख, प्यास, शोक, मोह, रोग और भवादिकी वेदनाजन्य लहरोका वाचक है और 'स्मय' शब्द मद तथा विस्मय दोनोके लिए प्रयुक्त हुआ जान पड़ता है। इन सबका सहन परीषह-जयमे आ जाता है। प्रदर्शित-ध्यानफलसे ध्यानफलको ऐहिक ही माननेका निषेध अत्रैव माऽऽग्रहं कार्षु यद्ध्यान-फलमैहिकम् । इदं हि ध्यानमाहात्म्य-ख्यापनाय प्रदर्शितम् ॥२१९।।
'इस ध्यान-फलके विषयमे किसीको यह आग्रह नहीं करना चाहिये कि ध्यानका फल ऐहिक (लौकिक) ही होता है, क्योकि यह ऐहिक फल तो यहाँ ध्यानके साहात्म्यकी प्रसिद्धिके लिए प्रदशित किया गया है।'
१ ज्ञानाकुशमे यही पद्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है -
वैराग्य तत्त्वविज्ञान नम्रन्थ्य समभावना । जय परिपहाणा च पचैते ध्यानहेतव ॥४२॥