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________________ ध्यान-शास्त्र १८३ ल्लेख है और 'आदि' शब्दके द्वारा तत्सदृश तथा तत्सम्बद्ध जिन दूसरे विषयोका सूचन है वे सब शान्त-क्रूरादिकर्म-विषयक विविध ध्यानोके यथायोग्य परिवार हैं अथवा उनकी सहायक सामग्रीके रूपमे स्थित हैं। उनके स्वरूपादिका वर्णन मत्रवादादि-विषयक ग्रन्थोमे-विद्यानुवादादि जैसे शास्त्रोमे-किया गया है, उन परसे उनको जानना चाहिये। यहाँ थोडे शब्दोमे ध्यानके लिए जानने योग्य उपयोगी विषयोकी जो सूचना की गई है वह बडी महत्त्वपूर्ण है और उससे इस बातका पता चलता है कि ध्यानका विषय कितना गहन-गम्भीर है, कितना बडा उसका परिवार है और कितनी अधिक सतर्कता, सावधानी तथा जानकारीकी वह अपेक्षा रखता है। सब सामग्रीसे सुसज्जित होकर जब किसी सिद्धिके लिये ध्यान किया जाता है तभी उसमे यथेष्ट सफलताकी प्राप्ति होती है। जो अधूरे ज्ञान, अधूरे श्रद्धान और अधूरी साधन-सामग्रीके बल पर किसी प्रकारकी सिद्धिको प्राप्त करना चाहता है तो यह उसकी भूल है, उसे ऐसी अवस्थामे यथेष्ट-सिद्धिकी प्राप्ति नही हो सकती। लौकिकादि सारी फल-प्राप्तिका प्रधान कारण ध्यान यदात्रिक फलं किंचित्फलमासुत्रिकं च यत् । एतस्य द्वितयस्यापि ध्यानसेवाऽनकारणम् ॥२१७॥ 'इस लोकसम्बन्धी जो फल है उसका और परलोकसम्बन्धी जो फल है उसका भी ध्यान ही मुख्य कारण है ध्यानसे दोनो लोकसम्वन्धी यथेच्छित फलोकी प्राप्ति होती है।' व्याख्या-यहाँ, ध्यानके फल-कथनका उपसहार करते हुए, स्पष्ट घोषणा की गई है कि लौकिक और पारलौकिक जो कुछ भी फल है उसकी प्राप्तिका प्रधान कारण ध्यान ही है । इससे ध्यान
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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