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________________ थान-शास्त्र १८१ व्याख्या-पिछली सार-सूचनाका यह पद्य भी एक अंग है। इसमे यह बतलाया है कि ध्यान-द्वारा साधक योगी जिन कार्योको सिद्ध करना चाहता है वे दो प्रकारके हैं-शान्तकर्म और क्रूरकर्म। शान्तकर्मकी साधनामे योगी शान्त और क्रूरकर्मकी साधनामे क्रूर होता हुआ दोनो प्रकारके कार्योंको सिद्ध करनेमें समर्थ होता है। समरसीभावकी सफलतासे उक्त भ्रान्तिका निरसन आकर्षणं वशीकारः स्तम्भनं मोहनं द्रुतिः । निविषीकरण 'शान्तिविद्वषोच्चाट-निग्रहा ॥२११॥ एवमादीनि कार्याणि दृश्यन्ते ध्यानवर्तिनाम् । ततः समरसीभाव-सफलत्वान्न विभ्रम ॥२१२॥ 'ध्यानका अनुष्ठान करनेवालोके आकर्षण, वशीकरण, स्तम्भन, मोहन, विद्रावण, निविषीकरण, शान्तिकरण, विद्वषन, उच्चाटन, निग्रह इत्यादि कार्य दिखाई पड़ते हैं। अत समरसीभावके सफल होनेसे विभ्रमकी कोई बात नहीं है।' व्याख्या-यहाँ, शका-समाधानका उपसहार करते हुए, जिन आकर्षणादि कार्योंका निर्देश तथा 'आदीनि' पदके द्वारा सूचन किया है उनके विषयमे कहा गया है कि ये सब कार्य ध्याननिष्ठात्माओके द्वारा होते हुए देखे जाते हैं। अत ध्येय-सदृशध्यानके पर्यायरूप अथवा ध्येय-ध्याताके एकीकरणरूप जो यह समरसीभाव है उसके सफल होनेसे विभ्रमकी कोई बात नही रहती। उक्त कथनमे 'दृश्यन्ते' पद अपना खास स्थान रखता है और इस बातको सूचित करता है कि जिन आकर्पण-स्तम्भनादिक १. म शातिविद्धपोच्चाट।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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