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________________ १५० तत्त्वानुशासन उसके दाहज्वरको दूर करता है । क्षीरोदधिके ध्यान द्वारा स्वय क्षीरोदधिमय हुआ योगी सारे जगतको उसमे दुबाता -तिराता हुआ प्राणियो के शान्तिक तथा पौष्टिक कर्मों को करता है ओर इस तरह उन्हे सुखी बनाता है । इस प्रकार ये कुछ थोडे उदाहरण हैं जिनके द्वारा तद्ददेवतामय-ध्यानके फल और सिद्धान्तको स्पष्ट करके बतलाया गया है । तद्देवतामय ध्यानके फलका उपसहार किमत्र बहुनोक्तन यद्यत्कर्म चिकीर्षति । 'तद्ददेवतामयो भूत्वा तत्तन्निर्वर्तयत्ययम् ॥ २०६ ॥ ' इस विषय मे बहुत कहने से क्या ? यह योगी जो भी काम करना चाहता है उस उस कर्मके देवतारूप स्वय होकर उस-उस कार्यको सिद्ध कर लेता है ।' व्याख्या - यहाँ, प्रस्तुत कथनका उपसहार करते हुए, अधिक कहनेको व्यर्थ बताकर यह सार - सूचना की गई है कि योगी जिसजिस कार्यको करना चाहता है उस उस कार्य के अधिष्ठाता देवताके ध्यान-द्वारा उस-उस देवतामय होकर उस उस कार्यको स्वय सम्पन्न करता है । शान्ते कर्मरिण शान्तात्मा क्रूरे क्रूरो भवन्नयम् । शान्त क्रूराणि कर्माणि साधयत्येव साधकः ॥ २१०॥ " यह साधक योगी शान्तिकमके करनेमे शान्तात्मा और क्रूरकर्मके करनेमे क्रूरात्मा होता हुआ शान्त तथा क्रूरकर्मोंको सिद्ध करता है ।' १. तद्द वन्मयो ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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