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ध्यान- शास्त्र
स्वयं सुधामयो भूत्वा वर्षन्नमृतमातुरे । 'अथैनमात्मसात्कृत्य " दाहज्वरमपास्यति ॥२०७॥ क्षीरोदधिमयो भूत्वा प्लावयन्नखिल जगत् । शान्तिक पौष्टिक योगी विदधाति शरीरिणाम् ॥ २०८ ॥
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'वह मन्त्री योगी ध्यान द्वारा स्वय गरुडरूप होकर विषको क्षणभरमे दूर कर देता है और स्वयं कामदेव होकर जगतको अपने वशमे कर लेता है। इसी प्रकार सैकड़ों ज्वालाओसे प्रज्वलित श्रग्निरूप होकर और ज्वालाओसे रोगी शरीरको व्याप्त करके शीघ्र ही शीतज्वरको हरता है; तथा स्वयं प्रमृतरूप होकर रोगीको आत्मसात् करके उसके शरीरमे अमृत की वर्षा करता हुआ उसके दाहज्वरका विनाश करता है, और क्षीरोदधिरूप होकर सारे जगतको उसमे तिराता, बहाता अथवा स्नान कराता हुआ वह योगी शरीरधारियोके शान्तिक तथा पौष्टिक कर्मको करता है ।'
व्याख्या - यहाँ दूसरे कुछ पदार्थोंके ध्यान - फलको भी भावध्येयके उदाहरण के रूपमे लिया गया है, जैसे गरुड, कामदेव, अग्नि, अमृत और क्षीरोदधिका ध्यान । गरुड़के ध्यान द्वारा स्वय गरुड हुआ योगी क्षणभरमे सर्पविषको दूर कर देता है । कामदेवके ध्यान द्वारा स्वयं कामदेव होकर योगी जगतको अपने वशमे कर लेता है । अग्निदेवता के ध्यान द्वारा स्वय संकडो ज्वालामोसे जाज्वल्यमान अग्निदेवतारूप होकर योगी शीत- ज्वर से पीडित रोगीको अपनी ज्वालाओसे व्याप्त करके शीघ्र हो उसके शीतज्वरको हरता है । अमृतके ध्यान द्वारा स्वयं अमृतरूप हुआ योगी रोगीको आत्मसात् करके शरीर मे अमृतकी वर्षा करता हुआ
१. मु मे अर्थतमात्मसाकृ ( त्कृ त्य । २. आ दाघ ।