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________________ १७८ तत्त्वानुशासन कुम्भको स्तम्भ-मुद्राव्य ' स्तम्भन मंत्रमुच्चरन् । स्तम्भ-कार्याणि सर्वारिण करोत्येकान-मानस. ॥२०४ (उक्त विगेषण-विशिष्ट मन्त्री) स्वयं सुकुट-कुण्डल-वनविशिष्ट और पीत-भूषण-वसनादिकको धारण किये हुए इन्द्र होकर पृथ्वीमण्डलके मध्यमे प्राप्त हुआ, कुम्भकपवनको साधे हुए, स्तम्भमुद्रासे युक्त और एकाग्रचित्त हुमा स्तम्भन मन्त्रका उच्चारण करता हुआ सारे स्तम्भन-कार्यों को करता है।' व्याख्या-यहाँ दूसरे देवताविशेप इन्द्रके ध्यान-फलको लिया गया है। इस ध्यानमे इन्द्रको ध्यानाविष्ट करके स्वय इन्द्र होता हुआ वह एकाग्रचित्त मन्त्री मारे स्तम्भनकार्योको करनेमे समर्थ होता है। इन्द्रका रूप मुकुट, कुण्डल, वज्र और पीले वस्त्राभूपणो आदिसे युक्त है और वह स्वर्गसे महीमण्डलके मध्य प्राप्त होकर ही यहाँ स्वय कुछ कार्य करनेमे समर्थ होता है। तदनुरूप ही मन्त्री अपनेको उन विशेषणोसे विशिष्ट अनुभव करे । साथ ही कुम्भकीपवनको साधे हुए स्तम्भ-मुद्रासे युक्त होकर स्तम्भन मन्त्रका उच्चारण करे, जो कि स्तम्भन कार्यके लिये इन्द्रानुभूतिके साथ अतीव आवश्यक है । स्तम्भ-मुद्राका और स्तम्भन-मन्त्रका इस विषयमे क्या रूप है यह अन्वेषणीय है। स स्वय गरुडोभूयश्वेडं क्षपयति क्षणात् । कन्दर्पश्च स्वयं भूत्वा जगन्नयति वश्यताम् ॥२०५॥ एवं वैश्वानरोभूय ज्वलज्ज्वाला- शताकुलः । शीतज्वरं हरत्याशु व्याप्य ज्वालाभिरातुरम् ॥२०६॥ १. मु मे कुम्भकोस्तम्भमुद्राद्या (ध.) । २. मु वैश्वानरो भूय ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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