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ध्यान-शास्त्र
१७३ यहाँ द्रव्यकी जिन स्वपर्यायोका उल्लेख है वे द्रव्यान्तरके सयोगके विना ही स्वभावसे होनेवाली वस्तु-प्रदेशपिण्डके रूपमे स्वाभाविक द्रव्यज-पर्याये हैं। इनके विपरीत जो द्रव्यान्तरके सयोगसे उत्पन्न होनेवाली प्रदेशपिण्डरूप पर्याये होती हैं उन्हे वैभाविक द्रव्यज पर्याये कहते हैं और वे जीव तथा पुद्गल इन दो द्रव्योमे ही होती हैं-शेषमे नही, जैसा कि अध्यात्मकमलमातण्डके द्वितीय परिच्छेदके निम्न दो पद्योसे प्रकट है
यो द्रव्यान्तर-समिति विनैव वस्तुप्रदेशसपिण्डः । नैसर्गिकपर्यायो द्रव्यज इति शेषमेव गदित स्यात् ॥११॥ द्रव्यान्तर-सयोगादुत्पन्नो देशसचयो द्वयज । वैभाविकपर्यायो द्रव्यज इति जीव-पुद्गलयो. ॥१२॥
जो सयोगज पर्याये होती हैं उनका द्रव्यमे सदा अस्तित्व नही बनता, जिसके लिये मूलमे 'सर्वदा' 'सत.' जैसे पदोका प्रयोग किया गया है, और इसलिए उनको परपर्याय तथा बाह्यभाव कहा जाता है ।
___ अर्हद्रूप ध्यानको भ्रान्त मानने पर ध्यान-फल नही बनता *किं च भ्रान्त यदीद स्यात्तदा नाऽत फलोदयः । नहि मिथ्याजलाज्जातु विच्छित्तिर्जायते तृषः ॥१४॥ प्रादुर्भवन्ति चाऽमुष्मात्फलानि ध्यानत्तिनाम् । धारणा-वशतः शान्त-कर-रूपाण्यनेकधा ॥१६॥
और यदि किसी तरह इस ध्यानको भ्रान्तरूप मान भी लिया जाय तो इससे फलका उदय नहीं बन सकेगा; क्योकि मिथ्याजलसे १ एगो मे सस्सदो आदाणाणदसण-लक्खणो ।
सेसा मे वाहिरा भावा सव्वे सजोग-लक्खणा (नियमसार) २. मे कि विभ्रान्त । ३. माज मे धारणा वसत ।