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________________ १७२ तत्त्वानुशासन व्याख्या-यहाँ, सोपाधि-स्फटिकके उदाहरण-द्वारा तन्मयताकी बातको स्पष्ट करते हुए, यह बतलाया गया है कि जिस प्रकार स्फटिकमणि, जिसे विश्वरूपमणि भी कहते हैं, जिस-जिस रूपकी उपाधिके साथ सम्बन्ध करता है उस-उस रूपकी उपाधिके साथ तन्मयता (तद्रूपता) को प्राप्त होता है, उसी प्रकार आत्मज्ञानी आत्माको जिस भावके साथ जिस रूप ध्याता है उसके साथ वह उसी रूप तन्मयताको प्राप्त होता है। अथवा भाविनो भूताः स्वपर्यायास्तदात्मका. । आसते द्रव्यरूपेण सर्वद्रव्येषु सर्वदा ॥१६२।। ततोऽयमहत्पर्यायो भावी द्रव्यात्मना सदा । भव्येष्वास्ते सतश्चाऽस्य ध्याने को नाम विभ्रमः ॥१६३ 'अथवा सर्वद्रव्योंमें भूत और भावी स्वपर्यायें तदात्मक हुई द्रव्यरूपसे सदा विद्यमान रहती हैं। अत. यह भावी अर्हत्पर्याय भव्यजीवोमे सदा विद्यमान है, तब इस सत्रूपसे स्थित अर्हत्पर्यायके ध्यानमे विभ्रमका क्या काम ?-अपने आत्माको अर्हन्तरूपसे ध्यानेमे विभ्रमकी कोई बात नही है। यही भ्रान्तिके अभावकी बात अपने आत्माको सिद्धरूप ध्यानेके सम्बन्धमें भी समझनी चाहिये।' व्याख्या-यहाँ शकाका समाधान एक दूसरी सैद्धान्तिकदृष्टिसे किया गया है और वह यह कि सर्वद्रव्योमे उनकी भूत और भावी स्वपर्यायें द्रव्यरूपसे तदात्मक हुई सदा स्थिर रहती हैंद्रव्यसे उसकी स्वपर्याये कभी जुदा नहीं होती और न द्रव्य ही स्वपर्यायोसे कभी जुदा होता है। इस सिद्धान्तके अनुसार भव्यजीवोमे यह भावी अर्हत्पर्याय द्रव्यरूपसे तदात्मक हुई सदा विद्यमान है। अत भव्यात्मामे सदा स्थित इस सत्रूप अर्हत्पर्यायके ध्यानमे विभ्रमकी कौनसी बात है ? कोई भी नहीं।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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