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________________ ध्यान-शास्त्र १७१ 'जो आत्मा जिस भावरूप परिणमन करता है वह उस भावके साथ तन्मय होता है अतः अर्हद्ध्यानसे व्याप्त प्रात्मा स्वयं भाव-अर्हन्त होता है।' व्याख्या-यहां अहध्यानाविष्ट आत्मा भावार्हन्त कैसे होता है, इस विषयके सिद्धान्तका प्रतिपादन किया गया है और वह यह है कि 'जो आत्मा जिस समय जिस भावसे परिणमन करता है वह उस समय उस भावके साथ तन्मय होता है और तन्मय होनेसे ही तद्रूप कहा जाता है । इसीसे अर्हन्तके ध्यानमे तद्प परिणत हुआ आत्मा स्वय भाव-अर्हन्त होजाता है। इस तद्रपपरिणमनके सिद्धान्तका निरूपण श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने प्रवचनसारके निम्नवाक्यमे भी किया है, जिसमे 'धर्म-परिणत आत्माको धर्म' बतलाया है - परिणमदि जेण दव्व तक्काल तम्मयत्ति पण्णत्त । तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुरणेयव्वो ।।८।। 'येन भावेन यद् पं ध्यायत्यात्मानमात्मवित् । तेन तन्मयतां याति सोपाधि: स्फटिको यथा ॥१६॥ __ 'आत्मज्ञानी आत्माको जिस भावसे जिस रूप ध्याता है उसके साथ वह उसी प्रकार तन्मय होजाता है जिस प्रकार कि उपाधिके साथ स्फटिक ।' १. जेण सरुवि झाइयइ अप्पा एह अरणतु । तेण सरुविं परिणवइ जह फलिहउ-मणिमतु ॥ (परमात्मप्र०२-१७३) येन येनैव भावेन युज्यते यत्रवाहक । तन्मयस्तत्र तत्रापि विश्वरूपो मणिर्यथा ॥ (अमितगतियोगसार ९-५१) येन येन हि भावेन युज्यते यत्रवाहकः। तेन तन्मयता याति विश्वरूपो मणिर्यथा ॥ (ज्ञानार्णव, योगशास्त्र' ...
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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