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तत्त्वानुशासन
व्याख्या - जो वस्तु जिस रूपमे स्थित है उसे उस रूपमे ग्रहण न करके विपरीतरूपमे ग्रहण करना भ्रान्तिका सूचक होता है । अत: अपना आत्मा जो अर्हन्त नही उसे अर्हन्तरूपमे ध्यान करनेवाले आप जैसे सत्पुरुषोके क्या भ्रान्तिका होना नही कहा जायगा ? ऐसा शिष्यने गुरुसे यहाँ प्रश्न किया है अथवा उनके सामने अपनी शकाको उपस्थित किया है। इस शकाका समाधान आगे (२१२ वे पद्य तक) किया गया है ।
भ्रान्तिकी शकाका समाधान
तन्न चोद्य यतोऽस्माभिर्भावार्हन्नयमर्पितः ।
स चार्ह ध्यान-निष्ठात्मा ततस्तत्रैव तद्ग्रहः ॥ १८६॥
'उक्त शका ठीक नहीं है; क्योकि हमारे द्वारा यह भावअर्हन्त विवक्षित है और वह भाव- श्रर्हन्त अर्हन्तके ध्यानमें लीन आत्मा है, अतः उस श्रर्हध्यान-लीन प्रात्मामे ही अर्हन्तका ग्रहण है - और इसलिये भ्रान्तिकी कोई बात नही है । '
व्याख्या- यहाँ शकाको ठीक न बतलाते हुए जो मुख्य बात कही गई है वह यह है कि हमारे उक्त ध्यानकथनमे 'भावं - अर्हन्त' विवक्षित है - द्रव्य - अर्हन्त नही । जो आत्मा अर्हदुध्यानाविष्ट होता है - अर्हन्तका ध्यान करते हुए उसमे पूर्णत लीन होजाता है - वह उस समय भावसे अर्हन्त होता है, उस भाव - अर्हन्तमें ही अर्हन्तका ग्रहण है 'अत. 'अतस्मस्तद्ग्रह ' का - जो जिस रूपमे नही उसे उस रूपमे ग्रहणका - दोष नही आता ।
परिणमते येनात्मा भावेन स तेन तन्मयो भवति । अर्हदुध्यानाऽऽविष्टो भावार्हन्' स्यात्स्वयं तस्मात् ॥ १६०
१. सि जु भावार्हयान । २ मुसि जु भावाहं ।