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ध्यान-शास्त्र
१६६ साथ द्वितीयवार शिर पर ही क्रमश भाल, मस्तक, दक्षिण, पश्चिम, और उत्तर भागमे न्यस्त करनेका विधान किया है।
इन विभिन्न उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि सकलीकरण-विषयकमन्त्रादि-पदोके विन्यासका कोई एक ही क्रम निर्दिष्ट नही है। जहाँ जिस-जिस कार्य के साथ जैसी व्यवस्था है वहाँ उस-उस कार्यको उसी व्यवस्थाके साथ ग्रहण करना चाहिये।
इस प्रकार मूल पद्योमे साकेतिकरूपसे स्थित गूढ अर्थका यह यत्किचित् स्पष्टीकरण है, जो यथाशक्ति ग्रन्थान्तरोके आधार पर किया गया है। विशेष जानकारी इस विषयके विशेषज्ञो अथवा अनुभवी विद्वानोसे ही प्राप्त हो सकेगी। _स्वात्माके अहंदू पसे ध्यानमे भ्रान्तिकी आशंका नन्वनहन्तमात्मानमर्हन्तं ध्यायतां सताम् । अतस्मिस्तद्ग्रहो' भ्रान्तिर्भवतां भवतीति चेत् ॥१८॥ __ 'यहाँ कोई शिष्य शका करता है कि जो आत्मा अर्हन्त नहीं उसको अर्हन्तरूपसे ध्यान करनेवाले आप सत्पुरुषोंके क्या जो वस्तु जिस रूपमे नहीं उसे उस रूपमे ग्रहणरूप भ्रान्ति नहीं होती है ?' १ हृदि न्यसेन्नमस्कारमो ह्रां पूर्वकमर्हताम् ।
पूर्वे शिरसि सिद्धानामो ह्री पूर्वा स्तुति न्यसेत् ॥७२॥ ॐ ह्र पूर्वक्रमाचार्यस्तोत्रं शीर्षस्य दक्षिणे। ॐ ह्रौं पूर्वमुपाध्यायस्तव पश्चिमतो न्यसेत् ॥७३।। वामे पाश्र्वे न्यसेद् ॐ ह्र पूर्वां साधुनमस्कृतिम् । तत पचाप्यमून् मत्रान् शिरस्येव पुनर्त्यसेत् ॥७४॥ प्राग्भागे शिरसो मूनि दक्षिणे पश्चिमे तथा ।
वामे चेत्येष विन्यासक्रमो वारे द्वितीयके ॥७५॥ -विद्यानु० २ ज तद्ग्रहे।