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तत्त्वानुशासन विरेचक पवनके द्वारा होता है। इसके पश्चात् नभ स्थित 'ह' मन्त्रसे झरते हुए अमृतसे जिस अमृतमय एव उज्ज्वल नव शरीरका निर्माण होता है उसकी रक्षाके लिए जिस सकलीक्रियाको व्यवस्थाका विधान किया गया है, वह नमस्कारमन्त्रके पाँच पदोको क्रमश. 'हाँ ह्री ह हो ह' इन पांच पिंडाक्षरोंसे (जिन्हे शून्यवीज भी कहते है) युक्त करके शरीरके पाँच स्थानो पर विन्यस्त करनेसे बनती है । शरीरके वे पाँच स्थान कौनसे है ? यह मूलपद्यसे कुछ स्पष्ट नहीं होता । मल्लिपेणाचार्यकृत भैरवपद्मावती-कल्पके 'सकलीकरण' नामक द्वितीय परिच्छेदमे शिर, मुख, हृदय, नाभि और पादद्वय इन पांच स्थानोका उल्लेख है
और इनमे णमो अरिहताण' आदि पाँच मन्त्र-पदोका क्रमश. 'हाँ' आदि एक-एक वीज पदके साथ न्यासका विधान है-भले ही पूर्वमे ॐ और अन्तमे 'स्वाहा' शब्द भी वहाँ जोडा गया है, जो यहाँ विवक्षित नहीं है, परन्तु विद्यानुशासनके तृतीय परिच्छेदगत सकलीकरण-विधानमे 'ॐ हाँ णमो अरिहताण' का हृदयमे 'ॐ ह्री णमो सिद्धाण' का शिरके पूर्व भागमे, 'ॐ हणमो आइरियाण' का शिरके दक्षिण भागमे, 'ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाण' का शिरके पश्चिम भागमे और 'ॐ ह्रः णमो लोए सव्वसाहूण' पदका शिरके वामभागमे न्यासका विधान है। साथ ही, इन पाँचो नमस्कारमत्रोको अपने-अपने वीजपदके
१. दहन कु भकेन स्याद् भस्मोत्सर्गश्च रेचकैः । (विद्यानु० परि० ३) २. पचनमस्कारपदैः प्रत्येक प्रणवपूर्व-होमान्त्य ।
पूर्वोक्तपचशून्य परमेष्ठिपदानविन्यस्तै ॥३॥ शीर्ष वदन हृदय नाभि पादौ च रक्ष रक्षति । कुर्यादेत मंत्री प्रतिदिवस स्वागविन्यासम् ॥४॥
-भरवपद्मा०