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ध्यान-श स्त्र गई है वह हृदयस्थ आठ पत्रोका मुकुलित अधोमुख कमल होता है, जिसके आठो पत्रो पर ज्ञानावरणादि आठ कर्म आत्माको घेरे हए स्थित होते हैं। इस कमलके आठो दलोको कुम्भकपवनके बलसे खोलकर-फैलाकर उक्त 'ह' बीजाक्षरके रेफसे उत्पन्न हुई प्रबलाग्निसे भस्म किया जाता है। कर्मकमलके दहनानन्तर त्रिकोणाकार अग्निमण्डलके द्वारा स्वशरीरके दहनका भी चिन्तन किया जाता है, जिसकी सूचना 'कर्म' के साथ 'स्ववपुषा' पदके प्रयोग-द्वारा की गई है और जिसका स्पष्टीकरण ज्ञानार्णवके निम्न पद्योसे होता है:
ततो वह्नि. शरीरस्य त्रिकोण वह्निमंडलम् । स्मरेज्ज्वालाकलापेन ज्वलन्तमिव वाडवम् ॥१६॥ वह्निबीज-समाक्रान्तं पर्यन्ते स्वस्तिकाऽडितम् । ऊर्ध्ववायुपुरोद्भूत नियूंमं कांचनप्रभम् ।।१७।। अन्तर्दहति मंत्राचिर्बहिर्वह्निपुर पुरम् । धगद्धगिति विस्फूर्जज्ज्वाला-प्रचय-भासुरम् ॥१८॥ भस्मभावमसौ नीत्वा शरीर तच्च पकज । दाह्याभावात्स्वय शान्ति याति वह्निः शनैः शनै ।।१६।।
अष्टकमदल कमल और शरीरके भस्मोभूत हो जाने पर उस भस्मके विरेचनका-उत्सर्गका-चिन्तन किया जाता है, जो
१ " हृद्यष्टकम निर्माण द्विचतु पत्रमम्बुज ।
मुकुलीभूतमात्मानमावृत्यावस्थित स्मरेत् । कुभकेन तदम्भोजपत्राणि विकचय्य च । निर्दहेन्नाभिपकेज वीजविन्दु-शिखाग्निना ।
(विद्यानु० ३-७६,८०) " तदष्टकर्म निर्माणमष्टपत्रमधोमुखम् ।। दहत्येव महामन्त्र-ध्यानोत्थप्रवलोऽनल ॥ (ज्ञाना० ३८-१५)