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________________ १६६ तत्त्वानुशासन याणं, णमो उवज्झायाण, णमो लोए सव्व साहूण, इन मूल णमोकारमत्रके पांच पदोसे-सकलीक्रिया करके तदनन्तर आत्माको निर्दिष्टलक्षण अर्हन्तरूप ध्यावे अथवा सकल-कम-रहित अमूर्तिक और ज्ञानभास्कर ऐसे सिद्धस्वरूप ध्यावे ।' व्याख्या-इन पद्योमेसे प्रथम दो पद्योमे मारुती, आग्नेयी और पीयूषमयी जलधारणाकी विधि-व्यवस्थाको साकेतिक रूपमे सूचित किया है, जिसमे अन्तिम धारणा-द्वारा अमृतमय नवशरीरके निर्माणकी भी सूचना शामिल है। तीसरे पद्यमे नव-निर्मित शरीरको सकलीकरण-क्रियासे सुसज्जित करनेका विधान है, जो विघ्नबाधाओसे अपनेको सुरक्षित करनेकी क्रिया कही जाती है । चौथे पद्यमे सकलीकरण-क्रियाके अनन्तर अर्हन्त अथवा सिद्धको निर्दिष्ट लक्षणके रूपमे ध्यानेकी प्रेरणा की गई है। अर्हन्तका यह ध्यानके योग्य निर्दिष्ट लक्षण ग्रन्थके १२३ से १२८ तक छह पद्योमे वर्णित है और सिद्धोका निर्दिष्ट लक्षण प्राय. पद्य १२० से १२२ मे दिया जा चुका है-उसके विवक्षित शेष रूपका सकलन यहाँ १८७ वें पद्यमे किया गया है, जो कि 'ध्वस्तकर्माण' और 'ज्ञानभास्वर' के रूपमे है। जिस नाभि-कमलकी कर्णिकामे 'अहं' या 'अ'-पूर्वक 'हं' मंत्रकी स्थितिकी बात कही गई है वह अतिमनोहर सोलह उन्नत पत्रोका होता है, जिनपर १६ स्वरोको अकित करके चिन्तन किया जाता है । जिस कर्मचक्रको रेफकी अग्निसे जलानेकी बात कही १. सिसाधयिषुणा विद्यामविघ्नेनेष्ट सिद्धये । यत्स्वस्य क्रियते रक्षा सा भवेत्सकली क्रिया ।। (विद्यानु० परि०३) २. 'ततोऽसौ निश्चलाभ्यासात् कमल नाभिमण्डल । स्मरत्यतिमनोहारि पोडशोन्नतपत्रकम् ।। प्रतिपत्रसमासीनस्वरमालाविराजितम् । कणिकाया महामन्त्र विस्फुरन्त विचिन्तयेत् ।। (ज्ञाना० ३८-१०,११) "नाभी षोडश विद्यात्तवयष्टासु दलमध्यग ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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