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ध्यान-शास्त्र धारणा (वारुणी) के विधानको सूचना है। यहां जिन तीन धारणाओका विधान है वे ज्ञानार्णव तथा योगशास्त्रमे वर्णित पार्थिवी आदि पाच धारणाओंके अन्तर्गत प्राय इन्ही नामोकी तीन धारणाओसे कुछ भिन्नक्रम तथा भिन्नस्वरूपको लिये हुए हैं, जैसा कि अगले कुछ पद्यो और उनकी व्याख्यासे प्रकट है। 'अकारं मरुता पूर्य कुम्भित्वा रेफवह्निना । दग्ध्वा स्ववपुषा कर्म, स्वतो भस्म विरेच्य च ॥१८४।। ह-मंत्रो नभसि ध्येय. क्षरन्नमृतमात्मनि । तेनाऽन्यत्तद्विनिर्माय पीयूषमयमुज्ज्वलम् ॥१८॥ ततः पचनमस्कारैः पंचपिडाक्षराऽन्वितैः । पंचस्थानेषु विन्यस्तैविधाय सकलीक्रियाम् ॥१८६॥ पश्चादात्मानमर्हन्त ध्यायेन्निर्दिष्टलक्षणम् । सिद्धं वा ध्वस्तकर्माणममूर्त ज्ञान-भास्वरम् ॥१८७॥ __(नाभिकमलकी कणिकामे स्थित) अहं मंत्रके 'अ' अक्षरको पूरक पवनके द्वारा पूरित और (कुम्भकपवनके द्वारा) कुम्भित करके, रेफ (') की अग्निसे (हृदयस्थ) कर्मचक्रको अपने शरीर-सहित भस्म करके और फिर भस्मको (रेचकपवन-द्वारा) स्वयं विरेचित करके 'ह' मंत्रको आकाशमें ऐसे ध्याना चाहिये कि उससे प्रात्मामे अमृत झर रहा है और उस अमृतसे अन्य शरीरका निर्माण होकर वह अमृतमय और उज्ज्वल बन रहा है । तत्पश्चात् पंच पिण्डाक्षरो (ह्रां ह्री ह ह्रीं ह्रः) से (यथाक्रम) युक्त और शरीरके पांच स्थानोमें विन्यस्त हुए पंचनमस्कारमत्रोसे-णमो अरहताण, णमो सिद्धाण, णमो आइरि१. मु मे आकार । २ मु सकला। ३ मु मे भासुर ।