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________________ तत्त्वानुशासन तस्माल्लक्ष्यं च शक्यं च दृष्टाऽदृष्टफलं' च यत् । स्थूलं वितर्कमालम्ब्य तदभ्यस्यन्तु धोधनाः ॥१८२॥ 'यह आत्माका अद्वैतदर्शन सूक्ष्म-ज्ञान पर अवलम्बित होनेसे ध्यानके लिये बड़ा ही कठिन विषय है और विशिष्ट ज्ञानियोंके द्वारा समझाया जाने पर भी शीघ्र ही लक्षित नहीं होता। अतः जो बुद्धिधनके धनी ज्ञानीजन हैं वे लक्ष्यको, शक्य (संभाव्य) को, दृष्ट और अदृष्टफलको स्यूल वितर्कका विषय बनाकर उसका अभ्यास करें।' व्याख्या-यहाँ प्रस्तुत ध्येयके व्यानको दु शक्यताका सहे. तुक उल्लेख करते हुए बुद्धिमानोको स्थूल वितर्कका आश्रय लेकर उसके ध्यानाभ्यासकी प्रेरणा की गई है । स्थूलवितर्कके विषय लक्ष्य, शक्य, दृष्ट फल और अदृष्टफल ये चार हैं। __ अभ्यासका क्रमनिर्देश 'तत्राऽऽदौ पिण्डसिद्ध्यर्थं निर्मलीकरणाय च । मारुती तैजसीमाप्यां विदध्याद्धारणांक्रमात् ॥१५३॥ 'उस अभ्यासमें पहले पिण्ड (देह) की सिद्धि और शुद्धि (निर्मलीकरण) के लिये क्रमश. मारुती, तेजसी और आप्या (वारुणी) धारणाका अनुष्ठान करना चाहिये। ___ व्याख्या-जिस अभ्यासकी पूर्वपद्यमे प्रेरणा की गई है उसकी अति सक्षिप्त सूचनामात्र विधि इस पद्य तथा अगले चार पद्योमे दी गई है। इस पद्यमे सबसे पहले शरीरकी सिद्धि-स्ववशमे स्थिति-और शुद्धिके लिये क्रमश मारुती, आग्नेयी और जलमयी २.पा दृष्ट दृष्टफल । २ इसे मु मे प्रतियोमे १८५वें पद्यके रूपमे दिया है। इससे अगले दो पद्योंके क्रमाङ्क भी उनमे बदले हुए हैं। ३. म माथा।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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