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________________ ध्यान-शास्त्र १६३ 'यह स्वात्मदर्शन अथवा नैरात्म्याद्वैतदर्शन धर्म्य और शुक्ल दोनो ही ध्यानोका ध्येय है । विशुद्धि और स्वामीके भेदसे दोनों ध्यानोंका भेद निश्चित किया जाना चाहिये। व्याख्या-यहां इस स्वात्मरूपके दशनको धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान दोनोका ही लक्ष्यभूत विषय बतलाया है और यह सूचना की है कि इन दोनो ध्यानोमे परस्पर विशुद्धि और स्वामिभेदकी अपेक्षासे जो भेद है, उसे अवधारण करना चाहिये । धर्म्यध्यानसे शुक्लध्यानमे परिणामोकी विशुद्धि अधिकाधिक-असख्यातगुणी तथा अनन्तगुणी है। शुक्लध्यानके चार भेदोमेसे प्रथम दो भेदोके स्वामी पूर्ववेद-श्रुतकेवली है, जो कि श्रेण्यारोहणके पूर्व धर्म्यध्यानके भी स्वामी है, और शेष दो भेदो अथवा परमशुक्लध्यानके ' स्वामी केवली भगवान है । धर्म्यध्यानके स्वामी अविरत सम्यग्दृष्टि, देशव्रती श्रावक, प्रमत्तसयत-अप्रमत्तसयत-मुनि तथा श्रेण्यारोहणसे पूर्ववर्ती दूसरे मुनि भी हैं। प्रस्तुत ध्येयके ध्यानकी दु शक्यता और उसके अभ्यासकी प्रेरणा इदं हि दु शकं ध्यातुं सूक्ष्मज्ञानाऽवलम्बनात् । बोध्यमानमपि प्राजन च द्रागेव लक्ष्यते ॥१८१॥ १ शुक्लध्यानके शुक्ल और परमशुक्ल ऐसे दो भेद भी आगममे प्रतिपादित हुए हैं जिनमेसे प्रथमके स्वामी छद्मस्थ और दूसरेके स्वामी केवली भगवान् होते हैं, जैसा कि श्रीजिनसेनाचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है : शुक्ल परमशुक्ल चेत्याम्नाये तद् द्विघोदितम् । छद्मस्थस्वामिक पूर्व पर केवलिना मत ॥ -आर्ष २१-१६७ २ मुद्रागवलक्ष्यते।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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