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तत्त्वानुशासन समाधिमें प्रवृत्त होनेवाला योगी जैसे-जैसे स्वात्मामे स्थिरताको प्राप्त होता जायगा तैसे-तैसे समाधिके प्रत्यय भी उसके प्रस्फुटित होते जायेंगे।'
व्याख्या-'सम्यग्गुरूपदेशेन' इत्यादि पद्य (८७) मे ध्यानके प्रत्ययो-चमत्कारोका जो आश्वासन दिया गया था उसीको पूर्ववर्ती इतने गुरूपदेगके वाद, स्पष्ट करते हुए यहाँ वहा गया है कि समाधिमे स्थित ध्याता जैसे-जैसे अपने आत्मामे स्थिरताको प्राप्त होता जायगा समाधिके अतिगय अथवा चमत्कार भी वैसेवैसे प्रस्फुटित होते जायेगे। इससे समाधि-प्रत्ययोका प्रस्फुटन स्वात्मामे उस अधिकाधिक लीनता एव स्थिरता पर निर्भर है जिसका ग्रन्थमे इससे पहले निरूपण किया गया है । और इसलिये जो ध्याता उस प्रकारको स्वात्मस्थिति प्राप्त किये विना ही साधारण जप-जाप्य अथवा ध्यान सामायिकादिके बल पर चमत्कारोकी आशा रखता है वह उसकी भूल है। उसे अहकार-ममकारके त्याग और इन्द्रिय-मनके निग्रहपूर्वक ध्यानका दृढताके साय सम्यक् अभ्यास कर स्वात्म-ध्यानमे स्थिरताको उत्तरोत्तर बढाना चाहिये । जैसे जमे यह स्थिरता वढेगी वैसे-वैसे ही ध्यान अथवा समाधिके अतिशय-चमत्कारोको प्रकट होनेका अवसर मिलेगा।
. स्वात्मदर्शन धर्म्य-शुक्ल दोनो ध्यानोका ध्येय है 'एतद्द्वयोरपि ध्येयं ध्यानयोHिशुक्लयोः । विशुद्धि-स्वामि-भेदात्तु तयोर्भेदोऽवधार्यताम् ॥१०॥ १. साधारणमिद ध्येय ध्यानयोधयंशुक्लयो. ।।
विशुद्धि-स्वामि-भेदात्तु तद्विशेषोऽवधार्यताम् ॥ (प्रार्प २१-१३१) ____ इस पाप-वाक्यमे प्रयुक्त 'ध्येय' पद अहत्सिद्धरूप परमात्माका
वाचक है। - २. ज एव द्वयोरपि, सि जु एतयोरपि ।