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________________ ध्यान-शास्त्र 'अहंकार-ममकारके भावसे रहित योगी एकाग्रतासे आत्माको देखता हुआ (आत्मा मे) संचित हुए कर्ममलोका जहाँ विनाश करता है वहाँ आनेवाले कर्ममलोंको भी रोकता है-इस तरह विना किसी विशेषप्रयत्नके सवर और निर्जरारूप प्रवृत्त होता है।' व्याख्या-यहाँ एकाग्रतासे आत्म-दर्शनके फलका निर्देश करते हुए उसके दो फल बतलाये हैं--एक आत्मासे सचित कर्ममलोकी निर्जरा (निकासी) और दूसरा आत्मामे नये कर्ममलोके प्रवेशको रोकनेरूप सवर । ये दोनो फल एक ही शुद्धात्मभावकी दो शक्तियोंके कारण उसी प्रकार घटित होते हैं, जिस प्रकार सचिक्कणताका अभाव हो जाने पर पहलेसे चिपटी हुई धूलि स्वय झड जातो है और नई धूलिको आकर चिपटनेका कोई अवसर नहीं रहता। यही बात 'अध्यात्मकमलमार्तण्ड' के निम्न दो पद्योमे एक ही शुद्धभाव भावसवर तथा भावनिर्जरा ऐसे दो कार्यरूप कैसे परिणमता है, इस शकाका समाधान करते हुए, स्पष्ट की गई है - एकः शुद्धो हि भावो ननु कथमिति जीवस्य शुद्धात्मबोधाद भावाख्य. सवर स्यात्स इति खलु तथा निर्जरा भावसंज्ञा। भावस्यैकत्वतस्ते मतिरिति यन्नव शक्तिद्वयात्स्यात् पूर्वोपात्तं हि कर्म स्वयमिह विगलेन्नैव बध्येत नव्यम् ॥४-१०॥ स्नेहाम्यगाभावे गलति रज पूर्वबद्धमिह नूनम् । नाऽप्यागच्छति नव्य यथा तथा शुद्धभावतस्तौ द्वौ ॥४-१०॥ स्वात्मामे स्थिरताकी वृद्धिके साथ समाधि-प्रत्ययोका प्रस्फुटन 'यथा यथा समाध्याता लप्स्यते स्वात्मनि स्थितिम । समाधिप्रत्ययाश्चाऽस्य स्फुटिष्यन्ति तथा तथा ॥१७॥ - - - १. सि जु यदा । २. सि जु तदा।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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