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- तत्त्वानुशासन अन्यात्माऽभावो' नैरात्म्यं स्वात्म-सत्तात्मकश्च सः । स्वात्म-दर्शनमेवातः सम्यग्नरात्म्य-दर्शनम् ॥१७६॥
'अन्य आत्मरूपके अभावका नाम नैरात्म्य है और वह स्वात्माकी सत्ताको लिये हुए है। अतः स्वात्माके दर्शनका नाम ही सम्यक् नैरात्म्य दर्शन है।' __व्याख्या-यहाँ, 'नैरात्म्य' को उसकी निरुक्ति-द्वारा अन्यात्माके अभावरूप बतलाते हुए, यह प्रतिपादन किया है कि वह नैरात्म्य स्वात्माके अभाव-रूप नही, किन्तु स्वात्माकी सत्ताको लिये हुए है, और इसलिये आत्मदर्शन ही सम्यक नैरात्म्यदर्शन है ।
आत्मानमन्य-सपृक्तं पश्यन् त प्रपश्यति । पश्यन्विभक्तमन्येभ्यः पश्यत्यात्मानमद्वयम् ॥१७७॥ 'जो आत्माको अन्यसे सपृक्त देखता है वह द्वैतको देखता है और जो अन्य सब पदार्थोसे आत्माको विभक्त देखता है वह अद्वतको देखता है।'
व्याख्या-यहाँ, नैरात्म्यके साथ अद्व तदर्शनकी बातको और स्पष्ट करते हुए, बतलाया गया है कि जो आत्माको अन्य देहादिकसे सयुक्त देखता है वह द्वतको देखता है और जो आत्माको दूसरोसे विभक्त देखता है वह अद्वैतको देखता है। ___ इस तरह 'नैरात्म्यावतदर्शन' का अभिप्राय केवल शुद्धात्माके दर्शनसे ही है।
एकाग्रतासे आत्मदर्शनका फल पश्यन्नात्मानमेकाग्र्यात्क्षपयाजतान्मलान् । निरस्ताऽहं-ममीभावः' सवृरणोत्यप्यनागतान ॥१७८।। १ मे अनात्माभावो। २. ज निरस्ताहंममीभावान् ।