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________________ MAHALENDAal.mLLILun-I ध्यान-शास्त्र १५६ 'और इसलिये मुक्तिको प्राप्तिके अर्थ जो नैरात्म्य-अद्वतदर्शनकी बात कही गई है वह यही है, जो कि अन्यके आभाससे रहित सम्यक् प्रात्मदर्शनके रूप है।' __ व्याख्या-यहाँ मुक्तिकी प्राप्तिके लिये 'नैरात्म्यावतदर्शन'के कथनकी जिस उक्तिका निर्देश है वह किस आगम-ग्रन्थमें कही गई है यह अभी तक मालूम नही हो सका । परन्तु वह कही भी कही गई हो, उसका स्पष्ट आशय यहाँ यह व्यक्त किया गया है कि वह अन्यके आभाससे रहित केवल आत्मदर्शनके रूपमें हैउस आत्मदर्शनके समय दूसरी किसी भी वस्तुका कोई प्रतिभास नही होता, यदि दूसरी कोई वस्तु साथम दिखाई पड़ रही है तो समझ लेना चाहिये कि वह अद्व तदर्शन नही है। "परस्पर-परावृत्ताः सर्वे भावाः कथचन । नैरात्म्यं जगतो यद्वन्नैर्जगत्य तथाऽऽत्मनः ॥१७॥ 'सर्व पदार्थ कथंचित् परस्पर परावृत्त हैं-एक दूसरेसे पृथक्त्व (भिन्न स्वभाव)को लिए हुए हैं। जिस प्रकार देहादिरूप जगतके नैरात्मता-आत्म-रहितता-है उसी प्रकार आत्माके नैर्जगतताजगतसे रहितता है। कोई भी एक दूसरेके स्वरूपमे प्रविष्ट होकर तप नही हो जाता।' ___व्याख्या-यहाँ 'नैरात्म्याव तदर्शन'के विषयको स्पष्ट करते हुए यह बतलाया गया है कि सर्वपदार्थ कथचित्-किसी एक दृष्टिसे-परस्पर परावृत्त हैं, सर्वथा नही । देहादिकके जिस प्रकार आत्मता नही उसी प्रकार आत्माके देहादिकता नही । परस्पर व्यावृत्त होते हुए भी कोई भी पदाथ एक दूसरेके स्वभावमें प्रविष्ट होकर तादात्म्यको प्राप्त नहीं होता। १. सि जु परस्पर परावृत्ता , ज परस्पर पराहक्षा । २. यथा जातु जगन्नाऽह तथाऽह न जगत् क्वचित् (अध्या० र०)
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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