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________________ } १५८ तत्त्वानुशासन का वह रूप है जिसकी सूचना पहले 'पूर्व श्र तेन सस्कारं ' इत्यादि पद्य (१४४) मे की गई है । . अन्यशून्य भी आत्मा स्वरूपसे शुन्य नही होता 'अत एवाsन्य शून्योऽपि नाऽऽत्मा शून्यः स्वरूपतः । शून्याsशून्यस्वभावोऽयमात्मनैवोपलम्यते ॥ १७३॥ ' इसीलिये अन्य बाह्यपदार्थोंसे शून्य होता हुआ भी आत्मा स्वरूपसे शून्य नहीं होता -- अपने निजरूपको साथमे लिये रहता है । आत्माकT यह शून्यता और अशून्यतामय स्वभाव आत्माके द्वारा ही उपलब्ध होता है-दूसरे किसी बाह्य-पदार्थ के द्वारा नही ।' व्याख्या - पिछले पद्यमे जो यह बात कही गई है कि स्वास्मलीन योगीको बाह्य पदार्थोंके विद्यमान होते हुए अन्य कुछ भी प्रतिभासित नही होता उसका फलितार्थ इतना ही है कि वह उस समय अन्यसे- दूसरे किसी भी पदार्थके सम्पर्कसे--शून्य होता है; परन्तु अन्यसे शून्य होता हुआ भी वह स्वरूपसे शून्य नही होता - स्वरूपको तो वह तल्लीनताके साथ देख ही रहा है । इस तरह आत्मा उस समय शून्याऽशून्य स्वभावको प्राप्त होता है - परद्रव्यादि - चतुष्टय के अभावकी अपेक्षा शून्य और स्वद्रव्यादिचतुष्टयके सद्भावको अपेक्षा अशून्य होता है, और यह शून्याऽशून्य स्वभाव भी आत्माके द्वारा हो उपलक्षित होता है - स्वसवेद्य है । मुक्ति के लिये नैरात्म्याद्व तदर्शन की उक्तिका स्पष्टीकरण ततश्च यज्जगुर्मु क्त्यै नैरात्म्याद्वत- दर्शनम् । तदेतदेव यत्सम्यगन्याऽपोढाऽऽत्मदर्शनम् ॥ १७४॥ १. ध्वस्ते मोहतमस्पन्त शास्तेऽक्षमनोऽनिले । शून्योऽप्यन्यैः स्वतोऽशून्यो मया दृश्येयमप्यहम् — अध्या० २० ४६
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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