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ध्यान-शास्त्र
स्वरूपनिष्ठ योगी एकाग्रताको नही छोडता यथा निर्वात-देशस्थः प्रदीपोन प्रकम्पते । तथा स्वरूपनिष्ठोऽयं योगी नैकाग्र्यमुज्झति ॥१७॥
'जिस प्रकार पवनरहित स्थानमे स्थित दीपक नहीं कॉपता उसी प्रकार अपने स्वरूपमे स्थित योगी एकाग्रताको नहीं छोड़ता।'
व्याख्या-जहाँ वायुका सचार नहीं हो ऐसे स्थान पर रखे हुए दीपककी शिखा जिस प्रकार कांपती नही-अडोल बनी रहती है-उसी प्रकार आत्मा जव वाह्यद्रव्योके ससर्गसे रहित हा अपने स्वरूपमे स्थित होता है तब वह एकाग्र बना रहता है-सहसा अपनी एकाग्रताको छोडता नही-बाह्य-पदार्थों के ससर्गरूप वायुके सचारसे ही उसको एकाग्रता भग होती है। स्वात्मलीन योगीको बाह्य पदार्थोंका कुछ भी प्रतिभास नही होता 'तदा च 'परमैकाग्र्याबहिरर्थेषु सत्स्वपि ।
अन्यत्र किंचनाऽऽभाति स्वमेवात्मनि पश्यतः॥१७२॥ 'उस समाधिकालमे स्वात्मामे देखनेवाले योगीकी परमएकाग्रताके कारण बाह्य-पदार्थों के विद्यमान होते हुए भी उसे आत्माके अतिरिक्त और कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता।'
व्याख्या-जिस समय योगी परम-एकाग्रताको प्राप्त हुआ अपनेको अपने आत्मामे देखता है उस समय बाह्य-पदार्थोके विद्यमान होते हुए भी उसे उनका कुछ भी भान नहीं होता। यह सब परमैकाग्रताकी महिमा है। और यही कुछ भी न चिन्तन
१ यह पद्य सि जु प्रतियोमे नही है । २. मु परमे ।