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प्रस्तावना
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हाशिया भी खराब हालतमे है और दीमक - भक्षणका भी सव पत्रो पर प्रभाव है । जिन अक्षरोके ऊपर रकार है वे द्वित्व हैं । लिखावट अच्छी है । दूसरे पत्रका प्रारम्भ " मिथ्याज्ञान तु तस्यैव सवित्वमशिश्रियत् ||१२|| " इस १२वें पद्यके उत्तरार्ध से होता है और समाप्ति ' श्रातं रौद्र च दुर्द्धधान वर्ज " इस ३४वें पद्यके प्रारंभिक अशसे होती है । चौथे पत्रका प्रारम्भ "चितां स्मृति निरोव तु तस्यास्तत्र व वर्तन || ५७" इस पद्याशके साथ और समाप्ति 'सचितयन्ननु" इस ७ वें पद्य के प्रारम्भिक अंशके साथ होती है । इससे पहला और तीसरा पत्र जो गुम हैं, उनके ऊपरके अन्य भागका सहज बोध हो जाता है इस प्रतिमे दो पत्रो पर ७० का अक पह जानेसे ७६ वें पद्यको ७८व लिखा है, और इसीसे ग्रन्थके अन्तमे पद्य - सख्या २५८ दी है, जव कि वह २५६ दी जानी चाहिए थी । अन्त मे " इति तत्त्वानुशासनं समाप्तमिति ॥ छ ॥ | " ऐसा लिख कर नीचे 'तत्त्वानुशासन' के अनन्तर टूट देकर “श्रीनागसेन विरचित" लिखा है, जो गलत है । यह प्रति ग्रन्थकर्त्ता के नामादिकी गलतियो के रूपमे प्राय मुद्रित (मु) प्रतिके समान है | कही कही गलतियोका जो सुधार है वह प्राय जयपुरकी उस मादर्श प्रतिसे मिलता-जुलता है जिस परसे सर्वप्रथम मैंने अपनी मुद्रित प्रति पर सुधार-मशोधनका कार्य किया था ।
इन परिचित और सम्पादन मे उपयुक्त प्रतियोसे भिन्न दूसरी भी कुछ ऐसी हस्तलिखित प्रतियां इस तत्त्वानुशासनकी कतिपय शास्त्रभडारोमे उपलब्ध जान पडी हैं, जो अभी तक अपने देखनेमे नही आई, जैसे (१) श्रामेरके शास्त्रभढारकी दूसरी प्रति, (२) व्यावरके ऐलक पन्नालाल - सरस्वती-भवनकी गुटकान्तर्गत प्रति, जिसका ६९वं पद्य की व्याख्यामे कुछ उल्लेख भी किया गया है, (३) बम्बई- भूलेश्वर के ऐलकपन्नालाल - सरस्वतीभवनकी प्रति नं० १६४३, (४) दिगम्बर भण्डार ईडरकी गुटका न० ८४ के अन्तर्गत प्रति, और (५) मूडबिद्रीके