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ध्यान-शास्त्र आधीन है। यदि ये जगतके क्षणभगुर पदार्थ किसीके राग-द्वषके विषय न बनें तो स्वय उपेक्षाके विषय ही रह जाते हैं।
इसी तरह आत्मा भी स्वभावसे राग करनेवाला (एष्टा) अथवा द्वेष करनेवाला (द्वष्टा) नही है । उसमे राग-द्वषको यह कल्पना तथा विभाव-परिणति परके निमित्तसे अथवा कर्माश्रित है। उसके दूर होते ही आत्मा स्वय उपेक्षित अथवा वीतरागी के रूपमे स्थित होता है। उसी रूपमे स्थित होने की यहाँ भावना की गई है।
मत्तः कायादयो भिन्नास्तेभ्योऽहमपि तत्त्वतः । नाऽहमषां किमप्यस्मि ममाऽप्येते न किचन ।।१५८ 'वस्तुतः ये शरीरादिक मुझसे भिन्न हैं, मै भी इनसे भिन्न हूं, मै इन शरीरादिकका कुछ भी (सम्बन्धी) नहीं हूं और न ये मेरे कुछ होते हैं।'
व्याख्या-यहाँ 'कायादय.' पदमे प्रयुक्त 'आदि' शब्द शरीरसे सम्बन्धित तथा असम्बन्धित सभी बाह्य-पदार्थोंका वाचक है और इसलिए उसमे माता, पिता, स्त्री, पुत्र, मित्र, दूसरे सगेसम्बन्धी, जमीन, मकान, दुकान, घर-गृहस्थी का सामान, बागबगोचे, धन-धान्य, वस्त्र-आभूषण, बर्तन-भाण्डे, पालतू अपालतू जन्तु और जगतके दूसरे सभी पदार्थ शामिल हैं। सभी पर-पदार्थोसे ममत्वको हटानेकी इस भावनामे यह कहकर व्यवस्था की गई है कि यथार्थता अथवा वस्तु-स्वरूपकी दृष्टिसे शरीर-सहित ये सब पदार्थ मुझसे भिन्न हैं, मैं इनसे भिन्न हूँ, मैं इनका कुछ नही लगता और न ये मेरे कुछ लगते हैं।
श्रौती-भावनाका उपसंहार । एवं सम्यग्विनिश्चित्य स्वात्मान भिन्नमन्यतः । विधाय तन्मय भाव न किचिदपि चितये
५९॥ १. म चिन्तये।