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________________ १५० तत्त्वानुशासन 'इस प्रकार (भावना-कार) अपने प्रात्माको अन्य शरीरादिकसे वस्तुतः भिन्न निश्चित करके और उसमें तन्मय होकर अन्य कुछ भी चिन्तन नहीं करे।' व्याख्या-यहाँ, श्रौती-भावनाका उपसहार करते हुए, बतलाया गया है कि इस प्रकार भावना-द्वारा स्वात्माको अन्य सब पदार्थोसे वस्तुत भिन्न निश्चित करके और उसीमे लीन होकर दूसरे किसी भी पदार्थकी चिन्ता न करके चिन्ताके अभावको प्राप्त होवे। चिन्ताका अभाव तुच्छ न होकर स्वसवेदन-रूप है चिन्ताऽभावो न जैनानां तुच्छो मिथ्याशामिव । दृग्बोध-साम्य-रूपस्य स्वस्य' सवेदन हि सः ॥१६०।। (यह) चिन्ताका प्रभाव जैनियोके (मतमे) मिथ्यादृष्टियों (वैशेषिकी) के समान तच्छ प्रभाव नहीं है क्योंकि वह चिन्ताका अभाव वस्तुतः दर्शन, ज्ञान और समतारूप प्रात्माके संवेदन व्याख्या-~-जैनदर्शनमें अभावको भी वस्तुधर्म माना है, जो कि वस्तु-व्यवस्थाके अगरूप है । एक वस्तुमे यदि दूसरी वस्तुका अभाव स्वीकार न किया जाय तो किसी भी वस्तुकी कोई व्यवस्था नही बनती। इस दृष्टिसे अभाव सर्वथा असत्रूप तुच्छ नहीं है, जिससे चिन्ताके अभावरूप होनेसे ध्यानको ही असत् कह दिया जाय । वह अन्य चिन्ताअोके अभावकी दृष्टिसे असत् होते हुए भी स्वात्मचिन्तात्मक-स्वसवेदनकी दृष्टिसे असत् नहीं है, और इसलिये १. मु यत्स्व । २ भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मो भावान्तर भाववदहतस्ते । प्रमीयते च व्यपदिश्यते च वस्तु-व्यवस्थाङ्गममेयमन्यत् ।। -~~-युक्त्यनुशासने, समन्तभद्रः
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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