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तत्त्वानुशासन स्वयमिष्टं न च द्विष्टं किन्तूपेक्ष्यमिदं जगत् । 'नाऽहमेष्टा न च द्वेष्टा किन्तु स्वयमुपेक्षिता ॥१५७॥
'यह दृश्य जगत् न तो स्वयं-स्वभावसे इष्ट है-इच्छा तथा रागका विषय है-, न द्विष्ट है-अनिष्ट अथवा द्वेषका विषय है, किन्तु उपेक्ष्य है-उपेक्षाका विषय है । मैं स्वय-स्वभावसे एष्टा-इच्छा तथा राग करनेवाला नहीं हूं, न द्वेष्टाद्वष तथा अप्रीति करनेवाला हूं, किन्तु उपेक्षिता ई-उपेक्षा करनेवाला समवृत्ति हूँ।'
व्याख्या-पिछले एक पद्य (१५२) में आत्माने अपने ज्ञानात्मक स्वरूपको देखते हुए जो परद्रव्योंसे उदासीन होनेकी भावना को है उसीके स्पष्टीकरणको लिये हुए यह भावना-पद्य है। इसमे वस्तु-स्वभावकी दृष्टिको लेकर यह भावना की गई है कि यह दृश्य जगत्-जगत्का प्रत्येक पदार्थ-न तो स्वय स्वभावसे इष्ट है और न अनिष्ट । यदि कोई भी पदार्थ स्वभावसे सर्वथा इष्ट या अनिष्ट हो तो वह सबके लिये और सदाके लिये इष्ट या अनिष्ट होना चाहिए। परन्तु ऐसा नहीं है। एक ही पदार्थ जो एक प्राणीके लिए इष्ट है वह दूसरेके लिए अनिष्ट है; एक रूपमे जो इष्ट है दूसरे रूपमे वह अनिष्ट है, एक कालमे जो इष्ट होता है दूसरे कालमे वही अनिष्ट होजाता है; एक क्षेत्रमे जिसे अच्छा समझा जाता है दूसरे क्षेत्रमे वही बुरा माना जाता है, एक भावसे जिसे इष्ट किया जाता है दूसरे भावसे उसीको अनिष्ट कर दिया जाता है। ऐसी स्थितिमें कोई भी वस्तु स्वरूपसे इष्ट या अनिष्ट नहीं ठहरती। इष्टता और अनिष्टताकी यह सब कल्पना प्राणियोंके अपने-अपने तात्कालिक राग-द्वष अथवा लौकिक प्रयोजनादिके
१. मु नो।
श्या स्वभावकी हाधारणको लिये हुए य उदासीन होनेकी भावना