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________________ ध्यान-शास्त्र १४७ व्याख्या-पिछले पद्य (१५३) मे 'चिदह' और उससे कुछ पूर्ववर्ती पद्य (१४६) मे 'चिदह तदचेतनम्' इन पदोका जो प्रयोग हुआ है, उन्हीके स्पष्टीकरणको लिये हुए यह पद्य है। इसमे शरीरको लक्ष्य करके कहा गया है कि वर्तमानमे वह कुछ जानता नही, भूतकालमे उसने कभी कुछ जाना नही और भविष्यमे वह कभी कुछ जानेगा नही, ऐसी जिसकी वस्तुस्थिति है वह शरीर मैं (आत्मा) नही हूँ। 'आदि' शब्दसे तत्सदृश और भी जितने अचेतन (जड) पदार्थ हैं उनरूप भी मैं (आत्मा) नही हूँ। 'यदचेतत्तथा पूर्व चेतिष्यति यदन्यथा । चेततीत्थं यदत्राऽद्य तच्चिद्रव्यं समस्म्यहम् ॥१५६॥ 'जिसने पहले उस प्रकारसे चेता-जाना है, जो (भविष्यमें) अन्य प्रकारसे चेतेगा-जानेगा और जो आज यहाँ इस प्रकारसे चेतता-जानता है वह सम्यक् चेतनात्मक द्रव्य मै हूँ।' ___ व्याख्या-यहाँ चिद्रव्यकी सत्दृष्टिको प्रधान कर कहा गया है कि जिसने भूतकालमे उस प्रकार जाना, जो भविष्यमे अन्य प्रकार जानेगा और जो वर्तमानमे इस प्रकार जान रहा है वह चेतनद्रव्य मैं (आत्मा) हूँ। चेतनाकी धारा आत्मामे शाश्वत चलती है, भले ही आवरणोके कारण वह कही और कभी अल्पाधिक रूपमे दब जाय, परन्तु उसका अभाव किसी समय भी नही होता। कुछ प्रदेश तो उसमे ऐसे हैं जो सदा अनावरण ही बने रहते है और इसलिये आत्मा चित्स्वरूपकी दृष्टिसे सदा चिद्रूप ही है, इसी आशयको लेकर यहाँ उक्त प्रकारकी भावना की गई है। १ यदचेतत्तथाऽनादि चेततीत्यमिहाऽद्य यत् । चेतयिष्यत्यन्यथाऽनन्तं यच्च चिद्रव्यमस्मि तत् ॥(अध्यात्मरहस्य ३३) २. सि जु यदा। ३ सि जु अन्यदा । ४. मु चेतनीय ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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