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तत्त्वानुशासन व्याख्या-यहाँ शरीरसे आत्माके भिन्नत्वकी भावना की गई है और उसके मुख्य तीन रूपोको लिया गया है-१ चेतन-अचेतनका भेद, २ एक-अनेकका भेद, ३ और क्षयी-अक्षयीका भेद । इन तीनो भेदोको अनेक प्रकारसे अनुभवमे लाया जाता है । आत्मा चेतन है-ज्ञान-स्वरूप है, शरीर अचेतन है-ज्ञान-रहित जडरूप है, शरीर अनेकरूप है-अनेक ऐसे पदार्थों तथा अगोके सयोगसे बना है, जिन्हे भिन्न किया जा सकता है, आत्मा वस्तुत. अपने व्यक्तित्वकी दृष्टिसे एक है, जिसमे किसी पदार्थका मिश्रण नही और न जिसका कोई भेद अथवा खण्ड किया जा सकता है, शरीर प्रतिक्षण क्षीण होता रहता है-यदि एक दो दिन भी भोजनादिक न मिले तो स्पष्ट क्षीण दिखाई पड़ता है, जबकि आत्मा क्षयरहित है-अविनाशी है, कोई भी प्रदेश उसका कभी उससे जुदा नही होता, भले ही भवान्तर-ग्रहणादिके समय उसमें संकोच-विस्तार होता रहे और ज्ञानादिक गुणो पर आवरण भी आता रहे, परन्तु वे गुण कभी आत्मासे भिन्न नहीं होते। अचेतनं भवेन्नाऽहं नाऽहमप्यस्म्यचेतनम् । ज्ञानात्माऽहं न में कश्चिन्नाऽहमन्यस्य कस्यचित् ॥१५०
'अचेतन मै (आत्मा) नहीं होता; न मै अचेतन होता हूँ मै ज्ञानस्वरूप हूं; मेरा कोई नहीं है, न मैं किसी दूसरे का हूं।'
व्याख्या-यहाँ आत्मा यह भावना करता है कि कोई भी अचेतन पदार्थ कभी आत्मा (मैं) नही बनता और न आत्मा (मैं) कभी किसी अचेतन पदार्थके रूपमे परिणमन करता है । आत्मा ज्ञानस्वरूप है, दूसरा कोई भी पदार्थ उसका अपना नहीं और न वह किसी दूसरे पदार्थका कोई अग अथवा सम्बन्धी है।
१. मु भवे नाह । २. मु प्रा मप्यस्त्यचेतन ।