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________________ ध्यान-शास्त्र १४३ यहाँ तथा आगे पीछे जहाँ भो 'अहं' (मैं) शब्दका प्रयोग हुआ है वह सब आत्माका वाचक है। योऽत्र स्व-स्वामि-सम्बन्धो ममाऽभूद्वपुषा सह । यस्त्वेकत्व-भ्रमस्सोऽपि परस्मान्न स्वरूपतः ॥१५॥ 'इस संसारमें मेरा शरीरके साथ जो स्व-स्वामि-सम्बन्ध हुमा है-शरीर मेरा स्व और मैं उसका स्वामी बना हूँ तथा दोनोंमे एकत्वका जो भ्रम है वह सब भी परके निमित्तसे है, स्वरूपसे नहीं।' __व्याख्या-यहाँ 'परस्मात्' पदके द्वारा जिस पर-निमित्तका उल्लेख है वह नामकर्मादिकके रूपमे अवस्थित है, जिससे शरीर तथा उसके अगोपागादिकी रचना होकर आत्माके साथ उसका सम्बन्ध जुडता है और जिससे शरीर तथा आत्मामे एकत्वका भ्रम होता है वह दृष्टि-विकारोत्पादक दर्शनमोहनीय कर्म है। इस पर-निमित्तकी दृष्टिसे ही व्यवहारनय-द्वारा यह कहनेमे आता है कि 'शरीर मेरा है' । अन्यथा आत्माके स्वरूपकी दृष्टिसे शरीर आत्माका कोई नहीं और न वस्तुत. उसके साथ एकमेकरूप तादात्म्य-सम्बन्धको ही प्राप्त है-मात्र कर्मों के निमित्तसे सयोग-सम्बन्धको लिये हुए है, जिसका वियोग अवश्यभावी है। यह सब इस श्रौती-भावनामे आत्मा चिन्तन करता है और इसके द्वारा शरीरके साथ स्व-स्वामि-सम्बन्ध तथा एकत्वके भ्रमको दूर भगाता है। जीवादि-द्रव्य-याथात्म्य 'ज्ञानात्मकमिहाऽत्मना । पश्यन्नात्मन्यथाऽत्मानमुदासीनोऽस्मि वस्तुषु ॥१५२॥ १.मुज्ञातात्मक।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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