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________________ ध्यान-शास्त्र १४१ उपयोगके ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ऐसे दो मूलभेद किये गये हैं, जिनमे ज्ञानोपयोगके आठ और दर्शनोपयोगके चार उत्तरभेद हैं, जैसा कि तत्त्वार्थसूत्रके 'स द्विविधोऽण्टचतुर्भेदः' इत्यादि अगले सूत्रोंसे जाना जाता है। 'नाऽन्योऽस्मि नाऽहमस्त्यन्यो नाऽन्यस्याऽह न मे परः । अन्यस्त्वन्योऽहमेवाऽहमन्योऽन्यस्याऽहमेव मे ॥१४॥ 'मैं अन्य नहीं हैं, अन्य मैं (आत्मा) नहीं है। मैं अन्यका नहीं न अन्य मेरा है। वस्तुत अन्य अन्य है, मै ही मै हूँ, अन्य अन्यका है और मै ही मेरा हूँ।' व्याख्या-यहाँ, स्व-परके भेद-भावको दृढ करते हुए, आत्मा भावना करता है-' मैं किसी भी पर-पदार्थरूप नही हूँ; कोई परपदार्थ मुझ-रूप नहीं है। मैं पर-पदार्थका कोई सम्बन्धी नही हैं, न पर-पदार्थ मेरा कोई सम्बन्धी है। वस्तुत पर-पदार्थ पर ही है, मैं मैं ही हूँ, पर-पदार्थ परका सम्बन्धी है, मैं ही मेरा सम्बन्धी हैं।' अन्यच्छरीरमन्योऽहं चिदहं तदचेतनम् । अनेकमेतदेकोऽह क्षयीदमहमक्षयः ॥१४६॥ , 'शरीर अन्य है, मै अन्य हूँ, (क्योकि) मै चेतन हूँ, शरीर अचेतन है, यह शरीर अनेकरूप है, मै एकरूप हैं, यह क्षयी (नाशवान्) है, मै अक्षय (अविनाशी) हूं।' १. मामन्यमन्यं मा मत्वा भ्रान्तो म्रान्ती भवार्णवे। नाऽन्योऽहमेवाहमन्योऽन्योऽन्योऽहमस्ति न ॥ (आत्मानु० २४३
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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