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________________ १४० तत्त्वानुशासन 'अतः मोहका विनाश करने, बाह्यचिन्तासे निवृत्त होने और एकाग्रताकी सिद्धिके लिये ध्याता पहले स्वात्माको श्रीतीभावनासे भावे - संस्कारित करे ।' व्याख्या - जब श्रीती - भावना का आलम्बन न लेनेसे मोहको प्राप्त होना तथा वाह्य चिन्तामे पडना अवश्यभावी है तव मोहके विनाश तथा बाह्य चिन्ताकी निवृत्तिके लिये और एकाग्रताकी सिद्धिके लिये अपने आत्माको पहले श्रोती- भावनासे भावित अथवा सस्कारित करना चाहिए । ऐसी यहाँ सातिशय प्रेरणा की गई है और इससे श्रोती -भावनाकी दृष्टि तथा उसका महत्व स्पष्ट होजाता है । श्रोती - भावनाका रूप तथा हिचेतनोऽसंख्य- प्रदेशो मूर्तिवजितः । शुद्धात्मा सिद्ध-रूपोऽस्मि ज्ञान-दर्शन-लक्षण ' ॥१४७॥ 'वह श्रौतीभावना इस प्रकार है : 'मै चेतन हूँ, असंख्य प्रदेशी हूँ, मूर्तिरहित-अमूर्तिक 'हूँ' सिद्धसदृश शुद्धात्मा हूँ और ज्ञान दर्शन लक्षणसे युक्त हूँ । व्याख्या - यहाँ आत्मा अपने वास्तविक रूपकी भावना कर रहा है, जोकि चेतनामय है, असंख्यात प्रदेशी है, स्पर्श-रस- गन्धवर्णरूप मूर्तिसे रहित अमूर्तिक है, सिद्धोके समान शुद्ध है और ज्ञान-दर्शन-लक्षणसे लक्षित है । ज्ञान और दर्शन गुणोको जो लक्षण कहा गया है वह इसलिये कि ये उसके व्यावर्तक गुण हैअन्य सब पदार्थोसे आत्माका स्पष्ट भिन्नबोध कराने वाले हैं । तत्त्वार्थ सूत्रमे 'उपयोगी लक्षण' सूत्रके द्वारा जीवात्माका जो उपयोग लक्षण दिया है वह भी इन दोनोका सूचक है । क्योकि - १. एगो मे सस्सदो आदा णाण-दसण- लक्खणो नियमसारे, कुन्दकुन्दः
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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