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ध्यान-शास्त्र
१३६ प्राप्ति हो और वह अन्य चिन्ता छोडकर अपनेमे ही लीन हो सके। और यह बात बडे ही महत्वकी है, जिसे अगले दो पद्योमे स्पष्ट किया गया है।
___ श्रौती-भावनाका अवलम्वन न लेनेसे हानि 'यस्तु नालम्बते' श्रौती भावनां कल्पना-भयात् । सोऽवश्यं मुह्यति स्वस्मिन्बहिचिन्तां विति च ॥१४५
'जो ध्याता कल्पनाके भयसे श्रौती (श्रुतात्मक) भावनाका आलम्बन नहीं लेता वह अवश्य अपने आत्म-विषयमें मोहको प्राप्त होता है और बाह्य चिन्ताको धारण करता है।' __व्याख्या-जो ध्याता निर्विकल्प-ध्यान न बन सकनेके भयसे पूर्वावस्थामे भी श्रौती भावनाको, जो कि सविकल्प होती है, नहीं अपनाता वह मोहसे अभिभूत अथवा दृष्टिविकारको प्राप्त होता है और बाह्य-पदार्थों की चिन्तामे भी पडता है । इससे उसे सबसे पहले श्रौती-भावनाके सस्कार-द्वारा अपने आत्माको उसके स्वरूप-विषयमे सुनिश्चित और सुदृढ बनाना चाहिये, तभी निविकल्प-ध्यान अथवा समाधिकी बात बन सकेगी।
श्रौती-भावनाकी दृष्टि तस्मान्मोह-प्रहाणाय बहिश्चिन्ता-निवृत्तये । स्वात्मान भावयेत्पूर्वमेकाग्रयस्य च सिद्धये ॥१४६।। १ सि जु प्रतियोमे यह पद्य १४८ वें पद्यके बाद दिया है, जो ठीक
नही है। २ मु० नालम्व्यते। ३ गहिय त सुअरणाणा पच्छा सवेयरणेण भाविज्ज । जो ण हु सुयमवलम्बइ सो मुज्झइ अप्पसम्भावे ।।
-अन० टी० ३-१ तथा इष्टो० टी० मे उद्धृत ४, मु मेकाग्रस्य