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________________ तत्त्वानुशासन दिध्यासु' स्वं परं ज्ञात्वा श्रद्धाय च यथास्थित । विहायाऽन्यदर्थित्वात् स्वमेवाऽवतु पश्यतु ॥१४३॥ 'जो स्वावलम्बी निश्चयध्यान करनेका इच्छुक है वह स्वको और परको यथावस्थित रूपमे जान कर तथा श्रद्धान कर और फिर परको निरर्थक होनेसे छोड़कर स्वको (अपने आत्माको) ही जानो और देखो।' व्याख्या-यहाँ स्वके साथ परके यथार्थज्ञान-श्रद्धानको जो बात कही गई है वह अपना खास महत्व रखती है। जब तक परका यथार्थ-बोधादिक नही होता तब तक उसको स्वसे भिन्न एव अनर्थक समझकर छोड़ा नही जाता और जब तक परसे छुटकारा नहीं मिलता तब तक स्वात्मालम्बन-रूप निश्चयध्यानमे यथार्थ-प्रवृत्ति नहीं बनती। पूर्व श्रुतेन सस्कारं स्वात्मन्यारोपयेत्ततः । तत्रैकाग्र्यं समासाद्य न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥१४४॥ ' अतः पहले श्रु त (आगम) के द्वारा अपने प्रात्मामें प्रात्मसंस्कारको आरोपित करे-आगममे आत्माको जिस यथार्थरूपमे वर्णित किया है उस प्रकारको भावनाओ-द्वारा उसे सस्कारित करे--तदनन्तर उस संस्कारित सवात्मामें एकाग्रता (तल्लीनता) प्राप्त करके और कुछ भी चिन्तन न करे।' व्याख्या-यहाँ निश्चयध्यानकी यथार्थसिद्धिके लिये पहले आत्माको श्रुतकी भावनाओसे सस्कारित करनेकी बात कही गई है, जिससे आत्माको अपने स्वरूपके विषयमे सुदृढताकी १. मु दिधासु । २.मु यथास्थिति। ३. मु मे तत्रकान।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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