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ध्यान-शास्त्र
१३७ निश्चय-ध्यानका निरूपण व्यवहारनयादेवं ध्यानमुक्त पराश्रयम् । निश्चयादधुना स्वात्मालम्बनं तन्निरुप्यते ॥१४१॥
'इस प्रकार व्यवहारनयकी दृष्टिसे यह पराश्रितध्यान कहा गया है। अब निश्चयनयकी दृष्टिसे जो स्वात्मालम्बनरूप ध्यान है उसका निरूपण किया जाता है।'
व्याख्या-यहाँ व्यवहारनयाश्रित उस परालम्बनरूप भिन्नध्यानके कथनकी समाप्तिको सूचित किया है जिसका प्रारम्भ 'आज्ञापायौ' इत्यादि पद्य (९८) से किया गया था। साथ ही आगेके लिये निश्चयनयाश्रित स्वात्मालम्बन-रूप ध्यानके कथनकी प्रतिज्ञा की है, जिसका उद्देश्यरूपमे निर्देश पहले (प० ९६ मे) आ चुका है। ब्रुवता ध्यान-शब्दार्थ यद्रहस्यमवादि तत् । तथापि स्पष्टमाख्यातु पुनरप्यभिधीयते ॥१४२॥
'यद्यपि ध्यानशब्दके अर्थको बतलाते हुए (इस विषयमे) रहस्यकी जो बात थी वह कही जा चुकी है तो भी स्पष्टरूप व्याख्याकी दृष्टिसे उसे (यहाँ) फिरसे कहा जाता है।'
व्याख्या-ध्यानके जिस पूर्वकथनको यहाँ सूचना की गई है वह ग्रन्थमे 'ध्यायते येन तद्ध्यान' इस ६७वे पद्यसे प्रारम्भ होकर 'स्वात्मान स्वात्मनि स्वेन' नामक ७४ वें पद्य तक दिया हुआ है । वह सब कथन निश्चयनयको दृष्टिको लिये हुए है, यहाँ भी उसो दृष्टिसे कुछ विशेष एव स्पष्ट कथन करनेकी विज्ञापना की
१. मु मे मवादि सत् ।