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प्रस्तावना
मिलान करने पर किया गया मालूम होता है । दडो आदिके रूपमे कही सुखी नही लगी। लिपिकाल और लिपिकारके नामादिकका उल्लेख, ग्रन्थ-समाप्तिके अनन्तर एक पक्तिमे २५ सख्या-प्रमाण 'श्री' अक्षरको देकर, निम्न प्रकारसे किया गया है .___ "इवं पुस्तकं परिधाविसवत्सरे उत्तरायणे अधिकआषाढमासे कृष्णपक्षे एकादश्याया सौम्यवासरे द्वाविंशघटिकाया दिवा च वेणूपुरस्त (स्थ) पन्नेचारिस्ति(स्थित विद्वत्वामनशर्मणा पंचमपुत्र मद्गीतिकेशवशर्मणेन लिखितं समाप्तमित्यर्थ श्रीजिनाय नमः॥" __ यह प्रति भी बहुत अशुद्ध है। लिपिकारको उस प्रतिके अक्षरोका ठीक ज्ञान मालूम नहीं होता जिसपरसे प्रतिलिपि की गई है। इसीसे इसमे अ-आ, इ-ई, उ-ऊ जैसे मानादि के मोटे अशुद्ध पाठ भी पाये जाते हैं, जिन्हे तुलनामे प्राय. छोड दिया गया है । द-ध तथा द-थ का भेद भी कही-कहीं नहीं रक्खा गया, कही 'द्ध' को 'घ' के रूपमे ही लिखा है। कही द्वित्व अक्षरको द्वित्व न रखकर अकेला रक्खा है, कही अकेले अक्षरको द्वित्व बना दिया है और कही 'न' जैसे द्वित्व अक्षर को 'न्म' का रूप दे दिया है। यह सब कुछ होते हुए भी मुद्रित (मु) प्रति की अपेक्षा कई महत्वके पाठ भी इसमे उपलब्ध हुए हैं। सिद्धान्तभवनकी इस प्रतिको तुलनाके अवसर पर 'सि' सज्ञा दी गई हैं । 'जु प्रति मे इस प्रतिकी कुछ बहुत मोटी अशुद्धियोको कही-कही सुधारा गया है
और कही-कही नई अशुद्धियाँ भी की गई हैं। ____ जयपुरके शास्त्रभडारोकी छानबीन करने पर, पं० कस्तूरचन्दजी कासलीवालको दिगम्बर जैन बडा मन्दिर तेरहपन्थीसे तत्त्वानुशासनकी एक प्रति मिली, जिसे उन्होने मिलते ही मेरे पास भेजनेकी कृपा की । इसके बाद दो प्रतियां जयपुर-स्थित मामेरके भडारसे भी प्राप्त हुई , जिनमेसे उन्होंने एक जीर्ण-शीर्ण प्रतिको मेरे पास भेज दिया, दूसरीको अशुद्धप्राय समझ कर नहीं भेजा। इस कृपाके लिये