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तत्त्वानुशासन
सज्ञा दी गई है। ग्रन्थका अधिकाश संशोधन-कार्य उमीके आधारपर हुआ है।
उक्त मादर्श जयपुर-प्रतिको प्राप्तिके पास-पास ही (कुछ आगे पीछे) मुझे इस ग्रन्यकी एक दूसरो प्रति स्व० बाबू देवेन्द्र कुमारजीने जनसिदान्तभवनकी प्रतिपरसे नकल कराकर भेजी थी, जिसके लिये मैं उनका आभारी हूँ, और जो इस समय भी मेरे पास मौजूद है। यह प्रति शास्त्राकार खुले पत्रोपर है, जिनकी सख्या ११ और लम्बाई १२३ इच तथा चौडाई ७६ इच है । पहले और अन्तके दोनो पनोंकी पीठ खाली है। पहले पत्रपर १२ और अन्तके पत्रपर कुल दो पक्तियां हैं, शेष पयोके प्रत्येक पृष्ठपर ११-११ पक्तियां हैं, जिनमें अक्षर-सख्या प्रति-पक्ति प्राय. ३८ से ४१ तक पाई जाती है। यह प्रति बहुत कुछ अशुद्ध है और इसे 'जु' सज्ञा दी गई है। लेखनकाल इसपर अकित नही है । लेखकने अपना नाम 'वापूराव जैन' दिया है और अपनेको सांगली-निवासी तथा पागलगोत्रीय व्यक्त किया है, जैसा कि ग्रन्यप्रतिकी निम्न अन्तिम पक्ति से जाना जाता है :
"लिखितमिद सांगलीनिवासीपागलगोत्रीयवापूरावजनेन ।"
इस प्रतिके कुछ अंशो पर सन्देह होने और उन्हें माराके जैन सिद्धान्त-भवनकी मूल प्रतिसे जांचनेके लिये मैंने हालमे (कोई डेढ़ वर्ष हुआ) सिद्धान्तभवनको उक्त प्रतिको मंगाया था और वह मुझे वा० सुवोधकुमारजीके सौजन्यसे सहज ही प्राप्त हो गई थी, जिसके लिये मैं उनका आभारी हूँ। इस प्रतिकी शास्त्राकार पत्रसख्या १५ है। अन्तिम पत्रका द्वितीय पृष्ठ खाली है । पत्रके प्रत्येक पृष्ठ पर १० पक्तियां और पक्तियोंमे अक्षरोका प्रोसत प्राय प्रति-पक्ति ३० का जान पडता है। पत्रकी लम्बाई ११३ इच और चौडाई ६ इच की है । लिखाई साधारण और कागज फुलस्केप-जैसा है। यह प्रति कहीकही सशोधनको भी लिये हुए है, जो लिखनेके बाद उसी लेखक-द्वारा