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प्रस्तावना विशेप परिचय यहाँ नही दिया जा सका। उसके आधारपर मुद्रित हुई प्रति जब बहुत कुछ अशुद्ध है, जैसा कि तुलनात्मक फुटनोटो (पादटिप्पणियो) से जाना जाता है, तब उस बम्बई (मुम्बई) प्रतिका प्रशुद्ध होना भी स्वत सिद्ध है । उक्त मुद्रित प्रतिको यहां 'मु' सज्ञा दी गई है, जिसमे मुम्बईकी वह हस्तलिखित प्रति भी शामिल है। ___ मुद्रित प्रतिके अशुद्ध पाये जानेपर मेरे हृदयमे, गन्थके महत्त्वको देखते हुए, उसी समयसे दूसरी शुद्ध प्रतियोको प्राप्त करनेकी इच्छा जागृत हो उठी और प्रयत्नके फलस्वरूप मुझे एक अच्छी प्रति सन् १६२० मे जयपुरसे प्राप्त हो गई, जो प्रायः शुद्ध जान पडी और इसलिये मैंने अपनी मुद्रित प्रतिमे उसके पाठान्तरोको नोट कर लिया और मुद्रित प्रति पर सुर्सीसे लिख दिया-"जयपुरकी प्रतिपरसे सशोधन किया गया ।" इसके सिवाय मैंने उस प्रतिका और कोई परिचय उस समय नोट नहीं किया। दो तीन वर्षसे मैंने उस प्रतिको परिचयके लिए, फिरसे प्राप्त करनेका प्रयत्न किया और प० कस्तूरचन्दजी कासलीवाल एम०ए० को कितने ही प्रेरणात्मक पत्र लिखे, परन्तु उत्तर यही मिलता रहा कि तलाश करनेपर भी जयपुरके किसी भडारमे वह प्रति अभी तक मिल नहीं रही है। स्वर्गीय मास्टर मोतीलालजी सिंघीका शास्त्र भडार बन्द पडा है, वह खुल नहीं पाया, जिसमे उक्त प्रतिके मिलनेकी बडी सभावना थी, क्योकि सिंघी मास्टर जो एक बडे ही उद्योगशील एव परोपकारी पुरुष थे, वे एक-एक ग्रन्थकी कई-कई प्रतियां अपने सग्रहमे रखते थे, लोगोको उनके घर तक जाकर ग्रन्थ-प्रति स्वाध्यायके लिये दिया करते थे और स्वाध्याय हो जाने पर प्राय स्वय ही जाकर उसे ले आया करते थे । बहुत सभव हे कि उन्हींके द्वारा तत्त्वानुशासनकी वह प्रति मुझे भेजी गई हो। अस्तु, ग्रन्थके न मिलनेसे उसका कोई विशेष परिचय नही दिया जा सका । उस प्रतिको मैंने आदर्श प्रति माना है, और इसलिये उसको 'आ'